31.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आर्थिक वृद्धि के लिए बचत भी जरूरी

बैंकिंग व्यवस्था का पैसा बाजारों में असल पूंजी बनकर जाता है, जिससे नये कारखाने और परियोजनाएं बढ़ती हैं. वित्तीय बचत जब कम होती है तो कर्ज देने लायक पैसा भी कम रहता है जिससे ब्याज दर बढ़ जाती है.

गरीबी घटाने के लिए आर्थिक वृद्धि बढ़ाना जरूरी होता है ताकि रोजगार और आय बढ़ सके. भारत की प्रति व्यक्ति आय सालाना 3000 डॉलर या लगभग 2.4 लाख रुपये है जो जी-20 देशों में सबसे कम है. विकास के एक उपयुक्त स्तर तक पहुंचने के लिए भारत की राष्ट्रीय आय हर साल सात से आठ प्रतिशत की दर से बढ़नी चाहिए. इसकी वास्तविक गणना के लिए महंगाई का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. ऐसा कम-से-कम कुछ दशकों तक होना चाहिए. साथ ही, इस आय का वितरण भी समान होना चाहिए तथा मौजूदा असमानता और नहीं बढ़नी चाहिए. ऊंची आर्थिक वृद्धि के लिए राष्ट्रीय बचत सबसे जरूरी चीजों में एक होती है. यह राष्ट्रीय आय का वह हिस्सा होती है, जिससे भविष्य के लिए निवेश किया जाता है. भारत की अब तक की सर्वाधिक राष्ट्रीय बचत वर्ष 2010-11 में की गयी थी जब यह जीडीपी का लगभग 37 फीसदी थी. अभी यह 30 प्रतिशत है. इसमें से लगभग 20 प्रतिशत आम घरों से आता है, जिसमें छोटे कारोबारी भी शामिल हैं. बचत का बड़ा हिस्सा अमीर घरों से आता है, क्योंकि गरीब घरों के लोगों के पैसे खर्च हो जाते हैं. महंगाई बढ़ने पर कमाई और घट जाती है, और यदि आय महंगाई की दर से कम गति से बढ़ती है तो इससे भी लोगों की बचत घटती है.

भारत के कुल बजट को पारंपरिक तौर पर दो हिस्सों में बांटा जाता है – वित्तीय और गैर-वित्तीय बचत. गैर-वित्तीय बजट से लोग जमीन-मकान या सोना खरीदते हैं. वित्तीय बजट बैंकों, म्यूचुअल फंड, बांड, पेंशन और बीमा में इस्तेमाल होता है. वित्तीय क्षेत्र की मजबूती से लोगों का भरोसा बढ़ता है और लोग सोना, जमीन की जगह लोग पैसे बैंकों में या दूसरी चीजों में निवेश करते हैं. सोना महंगाई को मात देने के लिए किया गया निवेश माना जाता है. दुनिया में सोने की सबसे ज्यादा मांग भारत में होती है. लेकिन सोने के आयात से कीमती विदेशी मुद्रा भंडार घटता है. भारत में घरेलू बचत का ज्यादा इस्तेमाल गैर-वित्तीय स्रोतों में हो रहा है, और इस स्थिति को पलटे जाने की जरूरत है. अगर लोग सोना कम और घर-जमीन ज्यादा खरीदते हैं तो समझा जाता है कि अर्थव्यवस्था में लोगों का भरोसा है. लेकिन, वित्तीय बचत की तुलना में यह अभी भी कम उत्पादक होता है क्योंकि बैंकिंग व्यवस्था का पैसा बाजारों में असल पूंजी बनकर जाता है, जिससे नये कारखाने और परियोजनाएं बढ़ती हैं. वित्तीय बचत जब कम होती है तो बैंकों के पास कर्ज देने की राशि भी कम हो जाती है, जिससे ब्याज दर बढ़ जाती है.

इस कमी की भरपाई विदेशी निवेश या कर्ज से होती है, लेकिन इससे देश डॉलर के कर्ज में फंस जाता है. किसी देश की सकल वित्तीय बचत से ही कर्ज दिये जाते हैं. यह वर्ष 2022-23 में घटकर जीडीपी का 5.1 प्रतिशत रह गयी है, जो लगभग 50 सालों में सबसे कम है. ये बहुत चिंताजनक है. वर्ष 2020-21 में यह 11.5 प्रतिशत थी, जो अगले साल घटकर 7.2 और अभी 5.1 प्रतिशत पर आ गयी है. मगर इसी अवधि में कर्जों में तेजी से वृद्धि हुई है. लोग बैंकों और गैर-बैंकिंग स्रोतों से कर्ज ले रहे हैं. लोग बैंकों से पर्सनल लोन, क्रेडिट कार्ड, होम लोन और वाहन लोन ले रहे हैं. लेकिन उनसे ज्यादा गैर-बैंकिंग संस्थानों से कर्ज लिये जा रहे हैं. आज हमारे फोन पर अक्सर ऐसे कर्जों के लिए कॉल आते रहते हैं. लेकिन क्या गैर-बैंकिंग स्रोत ज्यादा जोखिम तो नहीं उठा रहे? अगर कहीं उनका बुलबुला फूटा तो अर्थव्यवस्था गिरनी तो नहीं शुरू हो जाएगी?

सकल वित्तीय बचत में गिरावट चिंताजनक स्थिति है. और ये कहकर दिलासा नहीं दिया जा सकता कि यह स्थिति यह जताती है कि लोग निजी और होम लोन लेने के इच्छुक हैं. देश की सकल बचत तो कम है ही, केंद्र और राज्य सरकारें उसपर से लगातार कर्ज लिए जा रही हैं. भारत जे पी मॉर्गन बांड इंडेक्स में शामिल होने के बाद अभी लगभग 20 अरब डॉलर का नया कर्ज उठाने की उम्मीद कर रहा है. लेकिन, बचत दर और सकल वित्तीय बचत में आयी कमी की स्थिति को पलटना बहुत जरूरी है. इसके लिए महंगाई को कम और स्थायी करने तथा वित्तीय कर्ज पर लगाम लगाने की जरूरत होगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें