Sarada Muraleedharan : किसी भी प्रदेश का मुख्य सचिव ब्यूरोक्रेसी में सबसे बड़ा पद होता है और हर प्रदेश के आइएएस का ख्वाब एक न एक दिन इस पद तक पहुंचने का होता है. आप इससे इस पद की अहमियत का अंदाजा लगा सकते हैं, लेकिन हाल में केरल की मुख्य सचिव ने जो कहा, वह अत्यंत चिंताजनक है और इस पर समाज को विमर्श करने की आवश्यकता है.
केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने कहा कि उन्हें काले रंग के कारण बार-बार अपमान सहना पड़ा है. उन्होंने कहा कि अनेक बार लोग उनकी तुलना उनके पति से करते हैं और कहते हैं कि शारदा उतनी ही काली हैं, जितने गोरे उनके पति वेणु हैं. गौरतलब है कि केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन से पहले उनके पति डॉ वी वेणु केरल के मुख्य सचिव पद पर तैनात थे. शारदा मुरलीधरन ने बताया कि हाल ही में किसी ने उनके और उनके पति के बतौर मुख्य सचिव कार्यकाल की तुलना की थी और सार्वजनिक रूप से कहा था कि दोनों में अहम अंतर यह है कि शारदा मुरलीधरन काली हैं और उनके पति गोरे हैं.
इन टिप्पणियों से आहत शारदा ने सोशल मीडिया पर लिखा कि कैसे काली होने के कारण उन्हें बचपन से ही अपमान सहना पड़ा है. उन्होंने लिखा कि उन्हें उनके पति ने इस बारे में सोशल मीडिया पर पोस्ट करने को कहा. बाद में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि समाज को अपना नजरिया बदलने की जरूरत है. इस बदलाव की शुरुआत सबसे पहले घर से होनी चाहिए, फिर स्कूल तक यह बदलाव होना चाहिए.
दरअसल, शारदा मुरलीधरन ने पिछले सात महीनों से जब से अपने पति की जगह मुख्य सचिव का पद संभाला है, तब से ही दोनों के कार्यकाल की तुलनाओं का सिलसिला चल रहा है. वे कहती हैं कि वे इसकी अभ्यस्त हो गयी हैं, पर अब बात उनके रंग तक जा पहुंची है. लोग उनकी योग्यता से उनका आकलन नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनके रंग से राय बना रहे हैं. उन्होंने कहा- हां मैं काली हूं. काला रंग सात गुना सुंदर है. काला वह है, जो काले काम करता है, न कि कोई रंग से काला है. काला रंग ब्रह्मांड का सर्वव्यापी सत्य है, फिर उसे बदनाम क्यों किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि काला रंग किसी भी चीज को अवशोषित कर सकता है, यह मानव जाति का सबसे शक्तिशाली ऊर्जा स्पंदन है.
शारदा मुरलीधरन ने जब इस संबंध में सोशल मीडिया पर पोस्ट की, तब प्रतिक्रियाओं की जैसी बाढ़ आ गयी. इतनी प्रतिक्रियाएं आयीं कि उन्होंने इसे हटा दिया. बाद में उन्होंने इसे फिर से पोस्ट किया. शारदा मुरलीधरन ने लिखा- मैं इसे फिर से पोस्ट कर रही हूं, क्योंकि कुछ शुभचिंतकों ने मुझे बताया कि रंगभेद ऐसा विषय है, जिस पर समाज में विमर्श होना चाहिए.
भारत में भी रंगभेद की जड़ें बहुत गहरी हैं. हमारे समाज की धारणा है कि गोरा होना श्रेष्ठता की निशानी है और सांवला या काला व्यक्ति दोयम दर्जे का होता है. अगर आप गौर से देखें, तो काले लोगों को गोरा बना देने वाले अनेक उत्पाद आपको बाजार में दिख जायेंगे. अगर आप गौर करें, तो देश के हर शहर के गली-मोहल्लों में बड़ी संख्या में ब्यूटी पार्लर खुल गये हैं और सबका कारोबार ठीक-ठाक चल रहा है. शादी की वेबसाइट और अखबारों के शादी के विज्ञापनों पर आप नजर डालें, तो पायेंगे कि सभी परिवारों को केवल गोरी नहीं, बल्कि दूधिया गोरी बहू चाहिए. अंग्रेजी अखबारों में तो साफ लिखा होता है कि मिल्की व्हाइट बहू की दरकार है. शादी के विज्ञापनों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति अथवा परिवार हो, जो सांवली वधू चाहता हो. यह रंगभेद नहीं तो और क्या है.
दरअसल, भारतीय समाज ने सुंदरता का पैमाना गोरा रंग मान लिया है. स्थिति यह हो गयी है कि लड़की सांवली हुई, तो मां-बाप हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं. ऐसे भी कई मामले सामने आये हैं कि लड़कियों ने इस काले-गोरे के चक्कर में आत्महत्या तक कर ली है. भारतीय समाज में यह भ्रांति भी है कि गर्भावस्था के दौरान महिला के खानपान से बच्चे के रंग पर भी असर पड़ता है और चूंकि सबको गोरा बच्चा चाहिए. यही वजह है कि दादी-नानी गर्भवती महिला को संतरे खाने की सलाह देती हैं और जामुन जैसे फल खाने पर एकदम पाबंदी रहती है.
रंगभेद का एक और उदाहरण हमारे सामने है. हमारे देश में अफ्रीकी देशों के लोगों को उनके रंग के कारण हिकारत की नजर से देखा जाता है. जब-तब किसी न किसी कारण अफ्रीकी छात्र को देश के किसी शहर में भी पीट दिया जाता हो.
राजधानी दिल्ली और कई अन्य शहरों में अफ्रीकी देशों के छात्र बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं. यह बात कोई दबी-छुपी नहीं है कि लोग उन्हें ‘कालू’ कह कर पुकारते हैं और हिकारत की नजर से देखते हैं. उनका काला रंग इस प्रकार के अपमानजनक बर्ताव का मूल कारण होता है. सरकारी स्तर पर अफ्रीकी देशों से भारत के रिश्ते अत्यंत घनिष्ठ हैं, लेकिन भारतीय जनता का अश्वेत लोगों से कोई लगाव नहीं है. अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नाक-नक्शा भिन्न होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है.
कैरियर की शुरुआत में ‘बीबीसी’ के साथ कार्य करने के दौरान मुझे कई वर्ष ब्रिटेन में रहने और भारतवंशी समाज को करीब से देखने-समझने का मौका मिला. मैंने पाया कि वहां के भी भारतीय समाज में रंगभेद रचा-बसा है. वहां गोरी बहू तो स्वीकार्य है, लेकिन अश्वेत बहू उन्हें भी स्वीकार नहीं, जबकि अश्वेत उस समाज का अभिन्न अंग है. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस देश में रंगभेद व नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी ने जन्म लिया हो, उस समाज में रंगभेद की जड़ें इतनी गहरी हैं.
दक्षिण अफ्रीका के शहर पीटरमारित्जबर्ग के रेलवे स्टेशन पर 1893 में महात्मा गांधी के खिलाफ रंगभेद की घटना घटित हुई थी. इसी शहर के रेलवे स्टेशन पर एक गोरे सहयात्री ने रंगभेद के कारण मोहनदास करमचंद गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था. इस घटना ने मोहनदास करमचंद गांधी को आगे चल कर महात्मा गांधी बना दिया और रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया. देश में यह समस्या विकराल है. इसके खिलाफ सामाजिक अभियान चलाये जाने की जरूरत है.