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कूटनीति में ट्रंप पर भारी पड़ते पुतिन

Putin Diplomacy : शिखर वार्ता के बाद ट्रंप ने पुतिन के शब्द दोहराते हुए युद्ध के जिन बुनियादी कारणों के समाधान की बात की, उनमें यूक्रेन के नाटो की सदस्यता हासिल करने के प्रयास, उसका सैन्यीकरण और कथित नात्सीकरण प्रमुख हैं, जिन्हें आधार बनाकर ही पुतिन ने 2014 में क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, फिर 2022 में यूक्रेन पर चढ़ाई कर दी.

Putin Diplomacy : माना यह जा रहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप रूस और चीन के बीच बढ़ती गुटबंदी तोड़कर रूस को पश्चिमी खेमे की तरफ लाना चाहते हैं. इसीलिए एक सोची-समझी रणनीति के तहत वह रूसी राष्ट्रपति पुतिन की आलोचना से बचते हैं. गाजा पर इस्राइली हमले बंद कराने में कामयाब न होने के बाद यूक्रेन का युद्ध रुकवा कर वहां सुलह-शांति कराने के उनके प्रयासों के पीछे नोबेल शांति पुरस्कार की चाह के अलावा शायद यह भी एक कारण रहा हो, परंतु पुतिन ने शतरंज के शातिर खिलाड़ी की तरह जिस चतुराई से अलास्का की शिखर बैठक में बिछायी ट्रंप की बिसात पर उन्हें मात दी है, उसके बाद से यह माना जाने लगा है कि पुतिन ने स्थायी समाधान की बातें बनाकर ट्रंप को नाटो गुट में फूट डालने की अपनी रणनीति के जाल में फंसा लिया है.


शिखर वार्ता के बाद ट्रंप ने पुतिन के शब्द दोहराते हुए युद्ध के जिन बुनियादी कारणों के समाधान की बात की, उनमें यूक्रेन के नाटो की सदस्यता हासिल करने के प्रयास, उसका सैन्यीकरण और कथित नात्सीकरण प्रमुख हैं, जिन्हें आधार बनाकर ही पुतिन ने 2014 में क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, फिर 2022 में यूक्रेन पर चढ़ाई कर दी. ट्रंप ने सुलह-शांति के लिए यूक्रेन के कुछ भागों के लेन-देन की बात भी की, जिसका इशारा पिछले साढ़े तीन साल की लड़ाई में रूस द्वारा जीते गये यूक्रेनी प्रांतों की ओर था. चूंकि अलास्का शिखर वार्ता में यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की और यूरोपीय संघ के नेता शामिल नहीं थे, इसलिए वार्ताओं के बाद ट्रंप ने उन्हें फोन किये.

अगले ही दिन वाशिंगटन में शिखर बैठक बुलायी गयी, जिसमें जेलेंस्की के साथ ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली और फिनलैंड के नेताओं और नाटो तथा यूरोपीय संघ के प्रमुखों ने भाग लिया. वाशिंगटन की शिखर बैठक में ट्रंप ने यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि उन्होंने पुतिन को शांति समाधान पर बातचीत के लिए तैयार कर लिया है. रूस यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी देने के लिए तैयार है. अमेरिका और नाटो सुरक्षा गारंटी में हाथ बंटा सकते हैं, परंतु यूक्रेन को नाटो की सदस्यता की कोशिशें छोड़नी होंगी.


ट्रंप ने भरोसा दिलाया कि पुतिन जेलेंस्की के साथ शिखर बैठक के लिए और त्रिपक्षीय शिखर बैठक के लिए भी तैयार हैं, जिसमें ट्रंप भी शामिल होंगे. जेलेंस्की और यूरोपीय नेताओं की दिलचस्पी यूक्रेन की सुरक्षा गारंटी की रूपरेखा और उसमें अमेरिका की भूमिका पर अधिक थी. बैठक के बाद जर्मन चांसलर ने ट्रंप से अनुरोध किया कि वह बातचीत आगे बढ़ाने से पहले पुतिन पर युद्धविराम का जोर डालें, पर न तो ट्रंप ने इस पर ध्यान दिया और न ही पुतिन की ओर से इसका कोई इशारा मिला. उल्टे गत सप्ताह रूस ने यूक्रेन पर हमले तेज करते हुए उसके शहरों और ऊर्जा केंद्रों पर ड्रोन और मिसाइल हमले किये, जिनमें पश्चिमी यूक्रेन में स्थित एक अमेरिकी कंपनी के भी कई कर्मचारी घायल हुए.

वाशिंगटन की शिखर बैठक से दो-तीन मुख्य बातें सामने आयी हैं. पहली तो यह कि पुतिन यूक्रेन की सुरक्षा गारंटी में नाटो और अमेरिका की भूमिका स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, लेकिन बाद के बयानों में ट्रंप ने स्पष्ट कर दिया कि वह अमेरिकी सैनिकों को सुरक्षा के लिए नहीं भेजेंगे. रूस ने भी जाहिर कर दिया कि वह यूक्रेन में नाटो सैनिकों की उपस्थिति स्वीकार नहीं करेगा. रूस यह भी चाहता है कि यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी देने वाले देशों में उसे भी शामिल किया जाए और उसे यूक्रेन पर हमले की जवाबी सैन्य कार्रवाई को वीटो करने का अधिकार भी मिले. रूस यूक्रेन का विसैन्यीकरण भी करना चाहता है. ऐसे में यूक्रेन और यूरोप के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि ऐसी सुरक्षा गारंटी का मतलब क्या रह जाता है.


दूसरी बात, शांति समाधान के लिए यूक्रेन के उन भागों के लेन-देन की थी, जिन पर रूस कब्जा कर चुका है. अभी तक यूक्रेन और यूरोपीय देश यूक्रेन के किसी भी भाग पर रूसी कब्जे का विरोध करते आये हैं, क्योंकि सैन्य शक्ति के बल पर किसी देश की सीमा बदलना उसकी प्रभुसत्ता और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का खुला उल्लंघन है. यदि रूस को यूक्रेन की जमीन हड़पने दिया गया, तो दुनिया का हर बलशाली देश कमजोर पड़ोसियों पर चढ़ बैठेगा! इसके बावजूद वाशिंगटन शिखर बैठक के बाद यूक्रेन और यूरोपीय देश यूक्रेन की जमीन के लेन-देन की बात पर चुप रहे. जेलेंस्की और पुतिन के बीच सीधी बातचीत होनी जरूरी है, जिसके आसार भी धूमिल होते दिखाई दे रहे हैं.


दरअसल पुतिन जेलेंस्की को इस युद्ध का एक मूल कारण मानते हैं. यदि उन्हें बातचीत के लिए तैयार कर लिया गया, तो भी बातचीत के स्थान को लेकर ऊहापोह चल रहा है. अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत ने पुतिन के खिलाफ युद्धापराध का वारंट निकाल रखा है. इसलिए वह केवल उन्हीं देशों में जा सकते हैं, जो या तो स्विट्जरलैंड की तरह तटस्थ हों या अमेरिका की तरह अपराध अदालत को न मानते हों. समीक्षकों का मानना है कि पुतिन शांति वार्ताओं में उलझा कर लड़ाई को सर्दियों तक खींचना चाहते हैं, ताकि डोनबास प्रांत के उन बचे हुए भागों पर भी उनका कब्जा हो सके, जहां यूक्रेनी सेना ने मोर्चाबंदी कर रखी है.

उनकी दिलचस्पी जेलेंस्की से बात करने में कम और अमेरिका के साथ संबंधों की बहाली में अधिक है. उसके लिए उन्हें युद्धविराम करना ही पड़ा, तो करेंगे. इस बीच ट्रंप का धीरज भी डोलने लगा है, वह फिर से सख्त प्रतिबंधों और टैरिफ की बातें करने लगे हैं. इसका सीधा नुकसान भारत को होगा, क्योंकि रूस के तेल व्यापार पर टैरिफ की चोट करने के लिए ट्रंप फिर भारत को ही पहला निशाना बनाएंगे. उनके व्यापार और वित्त मंत्रियों के भारत विरोधी बयानों की कटुता निरंतर बढ़ रही है.


दिलचस्प बात यह है कि ट्रंप या उनके मंत्रियों ने अभी तक तुर्किये पर अतिरिक्त टैरिफ लगाना तो दूर, सख्त बयान भी नहीं दिये हैं, जबकि तुर्किये अपना अधिकांश तेल रूस से ही खरीदता है. कुछ आलोचक इस दोहरी नीति को टैरिफ दस्युपन की संज्ञा भी दे रहे हैं, जिसकी वजह से अमेरिका भारत में तीन दशकों की मेहनत से जमाये उस विश्वास को खो रहा है, जिसके सहारे वह एशिया में चीन के बढ़ते वर्चस्व को संतुलित करना चाहता था. कहां अमेरिकी कभी चीन की घेराबंदी की बातें करते थे और कहां अब सौदेबाजी में लगे हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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