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मानसिक स्वास्थ्य के प्रति गंभीरता जरूरी

Mental Health : राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, भारत में आत्महत्या की दर 2017 में प्रति लाख में 9.9 थी, जो 2022 में बढ़ कर 12.4 हो गयी. पिछले एक दशक में छात्र आत्महत्या में 65 फीसदी की वृद्धि हुई है. आत्महत्या के इन बढ़ते आंकड़ों के पीछे शिक्षा से जुड़े दबाव, रोजगार का तनाव और सामाजिक अलगाव जैसे कारण हैं.

सुशील वलुंज-

Mental Health : हर सुबह लाखों आइटी कर्मचारी अपने काम की शुरुआत करते हैं, वे वीडियो कॉल करते हैं, ई-मेल के जवाब देते हैं. बाहर से यह सब कुछ बहुत बढ़िया लगता है. लेकिन इन दृश्यों और मुस्कराहटों से परे अदृश्य संघर्ष चलता रहता है. चिंता, थकावट, नींद पूरी न होना और असहायता का भाव. ये सब एक खामोश संकट के चिह्न हैं, जिन पर शायद ही ध्यान जाता है. यह भारत का छिपा हुए संकट है, जो चुपचाप हमारी उत्पादकता, रचनात्मकता, सामाजिक ताने-बाने को नष्ट कर रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा से भारत को एक दशक में एक ट्रिलियन डॉलर का नुकसान झेलना पड़ सकता है. जब एक युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर पुणे में अपने ऑफिस के टैरेस से कूद कर आत्महत्या करता है, या बैंक का एक अधिकारी असहनीय तनाव के कारण अपनी जान देता है, तो इसे सिर्फ व्यक्तिगत त्रासदी नहीं कह सकते. यह सांस्थानिक विफलता भी है.


राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, भारत में आत्महत्या की दर 2017 में प्रति लाख में 9.9 थी, जो 2022 में बढ़ कर 12.4 हो गयी. पिछले एक दशक में छात्र आत्महत्या में 65 फीसदी की वृद्धि हुई है. आत्महत्या के इन बढ़ते आंकड़ों के पीछे शिक्षा से जुड़े दबाव, रोजगार का तनाव और सामाजिक अलगाव जैसे कारण हैं. पिछले साल कई शहरों में किये गये अध्ययन में पाया गया कि कॉलेज में पढ़ने वाले दस में से सात छात्र मामूली से भीषण तनाव के शिकार हैं, जबकि हर दस में से छह छात्रों में अवसाद के लक्षण हैं. इसके बावजूद इनमें से ज्यादातर कभी इनसे उबरने के लिए मदद नहीं मांगते. या तो इसलिए कि वे उसके इलाज का खर्च वहन नहीं कर सकते, या इसलिए कि वे पागल होने की पहचान लिये सामाजिक विद्रूप का निशाना नहीं बनना चाहते. जैसा कि इश्तिखार अली जैसे विद्वान समेत दूसरे लोगों ने भी रेखांकित किया है कि अपने यहां मानसिक परेशानी को स्वास्थ्य संकट के बजाय नैतिक कमजोरी या आध्यात्मिक विफलता समझ लिया जाता है.

मानसिक बीमारी पर चुप्पी या शर्म सभी धर्म और सभी जाति में है, जिसे पुरुषतांत्रिक समाज मजबूती प्रदान करता है. प्रसव के बाद के अवसाद से भुगतती युवा स्त्री को प्रार्थना करने के लिए कहा जाता है, तनाव से गुजरते बच्चे को मर्द बनने की सीख दी जाती है. परिवार के लोग शर्म के मारे मानसिक बीमारियां छिपाते हैं. मानसिक स्वास्थ्य अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है. एक अवसादग्रस्त कर्मचारी कम उत्पादक होता है, एक थका हुआ उद्यमी कम रचनात्मकता का परिचय देता है, एक तनावग्रस्त छात्र का प्रदर्शन खराब होता है. शोध बताता है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवा में खर्च किया गया प्रत्येक रुपया उत्पादकता में चार रुपये की वृद्धि करता है. ऐसे ही, मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा से असमानता बढ़ती है. गांवों में रहने वाले लोग इसका खामियाजा सबसे अधिक भुगतते हैं. भारत में एक लाख लोगों पर 0.75 मनोचिकित्सक है, जो डब्ल्यूएचओ के प्रति लाख की आबादी पर तीन मनोचिकित्सकों के पैमाने से कम है.

देश की 63 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, जबकि ज्यादातर मनोचिकित्सक शहरों में सक्रिय हैं. मेंटल हेल्थकेयर एक्ट (2017) को ऐतिहासिक कानून घोषित किया गया है, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य को अधिकार बताया गया है. इसमें मानसिक रूप से बीमार लोगों की इलाज तक पहुंच, बीमा कवरेज और उनकी गरिमा की बहाली की गारंटी दी गयी है. पर आठ साल बाद वास्तविकता हताश करती है. मानसिक स्वास्थ्य पर भारत का बजट खर्च वैश्विक अनुपात में कम है. स्पष्ट कानूनी प्रावधानों के बावजूद अनेक बीमा कंपनियां शारीरिक बीमारियों की तुलना में मानसिक बीमारियों में कम बीमा राशि का प्रावधान रखती हैं. देश के कई राज्यों में मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड नहीं हैं या निष्क्रिय हैं. सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों को शायद ही कभी मानसिक बीमारी का प्रशिक्षण दिया जाता है.


भारत के युवा भीषण भावनात्मक दबाव में हैं. कोरोना का दौर उनके लिए अकेलापन और अनिश्चय लेकर आया था, तब से उनका स्क्रीन टाइम भी बढ़ गया. कॉलेज के छात्र असंभव उम्मीदों का पीछा करते हैं. स्नातकों में बेरोजगारी की दर 30 फीसदी से अधिक है. अनेक ग्रेजुएट छात्र सरकारी नौकरी की तैयारियों में वर्षों गुजार देते हैं, और हर विफलता उन्हें भीतर से तोड़ती है. शिक्षित युवाओं की बेरोजगारी में वृद्धि और ‘सफल होने’ के जुनून ने एक ऐसी युवा पीढ़ी तैयार की है, जो बाहर से तो आत्मविश्वासी दिखती है, पर अंदर से चिंतित है. जो देश आर्थिक महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए है, वह मानसिक रूप से थके हुए श्रमबल के साथ सफल नहीं हो सकता. कॉरपोरेट क्षेत्र में कई बड़ी कंपनियां मानसिक बेहतरी का सत्र आयोजित करती हैं और एंप्लॉयी एसिस्टेंस प्रोग्राम (इएपी) चलाती हैं. लेकिन बेहतर कार्यक्षेत्र मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करने से ही हो सकता है. कर्मचारियों को चाहिए कि वे अपने भय और चिंता के बारे में बिना डरे बतायें. आज मानसिक स्वास्थ्य के बारे में पहले से ज्यादा चर्चा होती है. इसके बावजूद मानसिक चिकित्सा तक पहुंच आसान नहीं हो पायी है.


हमें दूसरे देशों से सीखना चाहिए. ब्राजील में मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए फैमिली कैश ट्रांसफर स्कीम है, जिसके सहारे न सिर्फ बीमार का पोषण सुधरता है, बल्कि मृत्यु दर में भी कमी आयी है. केन्या में इस तरह की ट्रांसफर स्कीम से बीमारों का मानसिक स्वास्थ्य सुधरता है. भारत में मानसिक स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन स्वास्थ्य पर किये जाने वाले आवंटन का पांच फीसदी करना चाहिए. इसके अलावा अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों को बुनियादी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का प्रशिक्षण देना चाहिए. बीमा कंपनियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य को कवर करना अनिवार्य होना चाहिए.

मानसिक चिकित्सा को बेहतर पोषण और कैश ट्रांसफर से जोड़ना चाहिए. टेली काउंसलिंग और एआइ से लाभ मिलते हैं, पर ये मानवीय संवेदना की जगह नहीं ले सकते. यह बताने का प्रयास होना चाहिए कि मानसिक बीमारी शर्म का कारण नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नीति से संबंधित दिशानिर्देश जारी किये हैं. उनका समग्रता में पालन होना चाहिए. भारत का भविष्य सिर्फ राजमार्गों और सेमीकंडक्टरों में नहीं, बल्कि स्वस्थ, प्रेरित करने वाले और लचीले नागरिकों में भी है. मानसिक स्वास्थ्य का संकट खामोश इसलिए है, क्योंकि हमने इसे सुनना नहीं चाहा. पर यह समय है कि हम अपने बच्चों, सहकर्मियों, किसानों और दोस्तों से उनकी परेशानियां सुनें. अर्थव्यवस्था के निर्माण में बेहतर मानसिक स्वास्थ्य को तरजीह देना विलासिता नहीं, निवेश है.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

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