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बिहार में रोजगार हो विमर्श का केंद्र

भले आज रोजगार का मुद्दा चर्चा के केंद्र में नहीं है, किंतु आगामी दिनों में इस मुद्दे पर बहुत चर्चा होगी और ऐसा अकेले बिहार में ही नहीं होगा, बल्कि पूरे देश में होगा.

प्रो सुनील रे, पूर्व निदेशक, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, पटना

sunilray41@gmail.com

एक बैठक में मुझसे पूछा गया कि जातिगत भेदभाव, महिलाओं का उत्पीड़न आदि जैसे सामाजिक मुद्दों की तरह बेरोजगारी का मसला सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में क्यों नहीं आ पाता है? मेरी संक्षिप्त प्रतिक्रिया यह थी कि भले आज ऐसा नहीं हो रहा है, किंतु आगामी दिनों में इस मुद्दे पर बहुत चर्चा होगी और ऐसा अकेले बिहार में ही नहीं होगा, बल्कि पूरे देश में होगा. वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में यह अन्य सभी मसलों से कहीं अधिक उभरकर सामने आयेगा. इस समस्या के समाधान को अधिक देर तक टाला नहीं जा सकता है.

हालांकि वैश्विक पूंजी के तहत चल रही पूंजीवादी व्यवस्था का विकास इंजीनियरिंग इससे बचने की पूरी कोशिश करेगा. व्यवस्था सामाजिक मुद्दों को प्राथमिकता देती रहेगी, क्योंकि उन पर कार्रवाई करना अधिक मुश्किल नहीं है. अर्थव्यवस्था और समाज की अमानवीय संरचनात्मक अक्षमता के कारण लोगों की पीड़ा बढ़ती जा रही है. समाज के क्रमिक विकास की प्रक्रिया का द्वंद्व इसका संज्ञान लेता है और एक समय व्यवस्था का टकराव उन लोगों से होता है, जिन्हें रोजगार के अधिकार से वंचित रखा गया है.

आगामी दिनों में बेरोजगारी की समस्या बहुत अधिक गंभीर होगी, क्योंकि वर्तमान आर्थिक व्यवस्था एक सीमा के बाद अपने भीतर बदलाव लाने में अक्षम होती है. व्यवस्था इसलिए भी इस मुद्दे से कतरा कर नहीं निकल सकती है, क्योंकि इसमें अन्य मुद्दों से भी जुड़ने की संभावना होती है. व्यवस्था को यह पता है कि लगातार गंभीर होती बेरोजगारी को अगर चर्चा का केंद्रीय विषय बना दिया गया, तो उसके लिए सामाजिक समस्याओं की आड़ लेना बेहद मुश्किल हो जायेगा. सामाजिक मुद्दों पर कार्रवाई कर अस्थायी संकट से निकलना आसान है.

इसके बरक्स भूख और जीने की चिंताजनक स्थितियों में सामाजिक आंदोलन बनने की क्षमता होती है, जो व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है. इसीलिए कोशिश की जाती है कि ऐसे मुद्दे को अधिक बढ़ावा न मिले. पूंजी तंत्र के तहत काम करनेवाली राजनीतिक व्यवस्थाओं ने भारत समेत तीसरी दुनिया में भी मध्य वर्ग का आकार बढ़ाने में सफलता पायी है. यदि दस बेरोजगार लोगों में से एक व्यक्ति को रोजगार मिलता है, तो उसे खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, ताकि उम्मीद का द्वीप बनाकर बाकी की आवाज को दबाया जा सके.

इसके अलावा किसी तरह की राहत मुहैया करा कर या कुछ अन्य उपायों से असंतोष को कमजोर किया जाता है. मेरी राय में, भारतीय उपमहाद्वीप में टकराव तब सघन होगा, जब अन्य अवरोधों को पार कर वंचित लोग मिलकर सम्मान के साथ जीने के अधिकार का दावा करने लगेंगे. इसमें कोई संदेह नहीं है कि बिहार इस स्थिति में पहुंच चुका है. पचास साल पहले का बिहार का विचार आज अस्तित्व में नहीं है. यह इतना बदल चुका है कि सम्मान से जीने के लिए संघर्ष की सामूहिक आवाज सुनाई देती है, जिसमें जाति, वर्ग, धर्म, लिंग आदि की विषमता नहीं है. और, जो बिहार के लिए सच है, वह भारत के लिए भी सच है.

स्पष्ट रूप से कहा जाए, तो बिहार को संरचना बदलाव की जरूरत है, लेकिन इसका नेतृत्व बड़ी व कॉरपोरेट पूंजी के हाथ में नहीं होना चाहिए, जैसा कि अक्सर सुझाया जाता है और भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में होता रहा है. इस संदर्भ में मुझे प्रोफेसर आर्थर लेविस के द्वैध अर्थव्यवस्था मॉडल की याद आती है, जिसमें कहा गया है कि पूंजी की कमी वाले देशों में बदलाव बड़ी पूंजी पर आधारित उद्योगों के द्वारा हो सकता है. इसे बार-बार दुहराया जाता है. यह सही है कि हमारे देश में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े उद्योग लगाये गये हैं, पर यह भी सच है कि बेरोजगारी भी बढ़ी है. यह बढ़ोतरी अधिक तीव्रता से हुई है और खेतिहर श्रम का हस्तांतरण उद्योग में भी नहीं हो सका है. इसके बावजूद सरकार द्वारा प्रायोजित अर्थशास्त्री इस मॉडल की पक्षधरता करते रहते हैं.

ऐसी स्थिति में एक विशिष्ट संरचना बनाने की आवश्यकता है. ऐसी संरचना में हर तरह की आर्थिक गतिविधियों के लिए नया सामूहिक उद्यमिता का ढांचा तैयार होता है. इस स्व-संगठन में सामूहिकता है, पर यह पारंपरिक अर्थ में सहकारिता से भिन्न है. इसमें पूंजी का आधार छोटा होता है, पर वह मुख्यधारा की आर्थिक संरचना से आबद्ध नहीं होता है. वे स्थानीय सहभागिता के कारण तुलनात्मक रूप से स्वायत्त भी होते हैं. इससे स्थानीय स्तर पर आर्थिक प्रगति की प्रक्रिया गतिशील होती है. ऐसी संरचना कामगारों की स्वतंत्र संरचना होती है, जिसमें वे ही पूंजीपति होते हैं तथा किसी अन्य के दोहन को स्वीकार करने के बजाय अपना दोहन करते हैं. वे सरकार या बड़ी पूंजी द्वारा संरक्षित नहीं होते, बल्कि व्यापक सामूहिकता की शक्ति के आधार पर बढ़ोतरी करते हैं. वे राज्य की मदद तो ले सकते हैं, पर यह समझते हुए कि वे उसके द्वारा शासित नहीं हैं.

यह समझना जरूरी है कि अकुशल कामगारों को काम देने की योजना मनरेगा एक कल्याण कार्यक्रम है, न कि संरचना-आधारित रोजगार सृजित करने की प्रक्रिया. सरकार विशिष्ट संरचना के विकास में एक अलग विभाग बनाकर, कृषि क्षेत्र निर्धारित कर, संसाधनों का क्षेत्रीय आकलन कर, उत्पादन व संवर्धन क्रियाओं की संभाव्यता का निर्धारण कर तथा उद्यमिता के अवसरों को चिन्हित कर अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकती है. स्थानीय आर्थिकी का विकास स्थानीय क्षमता के आधार पर ही हो सकता है, न कि बाह्य कारकों के थोपने से.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by: Pritish Sahay

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