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चिंताजनक शहरी बाढ़

सरकारें या शहरी विकास से जुड़े विभाग जितना ध्यान सड़कों, पुलों और भवनों की गुणवत्ता एवं डिजाइन पर देते हैं, उसकी तुलना में जल निकासी को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं होती.

छ दिनों के भीतर हैदराबाद फिर बाढ़ की चपेट में है. आगामी दिनों में भारी बारिश के अनुमान को देखते हुए आशंका है कि शहर का संकट अभी टला नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि बहुत अधिक बारिश की वजह से बाढ़ की समस्या पैदा हुई है, लेकिन यह एक कारण ही है. हैदराबाद हो या फिर ऐसी औचक बाढ़ से त्रस्त होनेवाले दूसरे शहर हों, इस परेशानी की असली वजह शहरी प्रबंधन की लचर व्यवस्था है. मुंबई, बंगलुरु और गुरुग्राम की हालिया बाढ़ों या कुछ साल पहले पानी में डूबे चेन्नई और पटना की तस्वीरों को याद करें, हर जगह जल-जमाव के एक जैसे कारण ही सामने आते हैं.

अंधाधुंध और लापरवाह शहरीकरण तथा नगर निगमों एवं सरकारों के हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के चलते सामान्य से अधिक बरसात से जन-जीवन ठप पड़ जाता है. शासन और लोग बस यही उम्मीद करते हैं कि बारिश थमे और धीरे-धीरे पानी निकल जाए. यह चुनौती कितनी गंभीर है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि समुद्र तल से पर्याप्त ऊंचाई और पहाड़ी क्षेत्र में बसे श्रीनगर में भी कुछ वर्ष पूर्व जल-प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी.

जानकार इस बात पर एकमत हैं कि स्थानीय निकायों के भ्रष्टाचार और निष्क्रियता के कारण कचरे का निबटारा ठीक से नहीं हो पाता है. चारों तरफ बिखरा कूड़ा बीमारियों और प्रदूषण का कारण तो बनता ही है, नालियों में जमा होकर यह पानी की निकासी को भी बाधित करता है. ऐसे में बारिश का पानी सड़कों और गलियों में जमा हो जाता है और फिर घरों में घुसता है.

हमारे देश में बरसों से नगरीकरण को लेकर चर्चा होती रहती है. सरकारें बड़े-बड़े दावे करती हैं और परियोजनाओं की घोषणा होती है. लेकिन, इन्हें साकार करने के लिए गंभीर प्रयास नहीं होते. इसे मुंबई और गुरुग्राम के उदाहरणों से समझा जा सकता है. मुंबई एक बहुत पुराना शहर है, किंतु गुरुग्राम को बसे कुछ दशक ही हुए हैं. इसके बावजूद देश की राजधानी से सटे इस नये शहर की परियोजनाओं को ठीक से तैयार नहीं किया है और मुंबई जैसे शहरों के अनुभवों का भी समुचित संज्ञान नहीं लिया गया है.

परिणाम यह है कि हर साल मुंबई भी डूबती है और गुरुग्राम में भी पानी भर जाता है. निकासी की व्यवस्था में समुचित निवेश न होना भी एक प्रमुख कारक है. सरकारें या शहरी विकास से जुड़े विभाग जितना ध्यान सड़कों, पुलों और भवनों की गुणवत्ता एवं डिजाइन पर देते हैं, उसकी तुलना में निकासी को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं होती. उन्हें बदलने और बनाने का काम भी प्राथमिकता में नहीं होता है. शहरी विस्तार ने प्राकृतिक जल निकायों को अतिक्रमण का शिकार बनाया है.

इसका एक परिणाम भूजल के स्तर में बड़ी कमी भी है. यदि शासन-प्रशासन अब भी नहीं चेते, तो भविष्य में यह समस्या और भी गहन हो जायेगी. इस संबंध में ठोस नीतिगत पहल होनी चाहिए और शहरी विकास के लिए समुचित निवेश जुटाया जाना चाहिए.

posted by : sameer oraon

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