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लेफ्ट-कांग्रेस के लिए अहम चुनाव

वर्ष 2011 के बाद हुए तमाम चुनावों में कांग्रेस और लेफ्ट अपने वजूद की रक्षा के लिए जूझते रहे हैं और हर बार उनके वोट कम होते रहे हैं. ऐसे में इन दोनों के लिए पश्चिम बंगाल का चुनाव बेहद अहम है.

प्रभाकर मणि तिवारी

वरिष्ठ पत्रकार

prabhakarmani@gmail.com

क्या यह माना जाए कि पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की ओर से बढ़ती चुनौतियों के बीच अपना वजूद बचाने के लिए ही कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ने इस वर्ष राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में तालमेल का फैसला किया है? पश्चिम बंगाल के राजनीतिक हलकों में भी यही सवाल पूछा जा रहा है. इसकी वजह यह है कि ये दोनों पार्टियां पहले भी एक साथ मिल कर चुनाव लड़ चुकी हैं, लेकिन तब उन्हें कोई खास फायदा नहीं हुआ था.

अब राजनीति के हाशिए पर पहुंच चुकी ये पार्टियां मौजूदा तालमेल के जरिये शायद अपना वजूद बचाने की ही लड़ाई लड़ रही हैं. हालांकि उनका दावा तो तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने का है, लेकिन आंकड़े उनके इस दावे की गवाही नहीं देते. वर्ष 2011 के बाद से लेफ्ट और कांग्रेस की राजनीतिक जमीन लगातार खिसकती रही है. बीते वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में स्थानीय स्तर पर अनौपचारिक तालमेल के बावजूद कांग्रेस जहां छह से घट कर दो सीटों पर आ गयी थी, वहीं लेफ्ट का खाता तक नहीं खुल सका था.

ऐसे में सत्ता के दावेदार के तौर पर उभरती भाजपा और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के बीच की टक्कर में इन दोनों ही पार्टियों को अपना अस्तित्व समाप्त होने का खतरा महसूस हो रहा है.

इन दोनों ने वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में भी हाथ मिलाया था, लेकिन तब लेफ्ट को नुकसान ही सहना पड़ा था. उस समय कांग्रेस ने 294 में से 90 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 44 सीटें जीत कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, लेकिन उसके बाद से पार्टी के कई विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं.

वर्ष 2016 के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को जहां 44.9 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं कांग्रेस-लेफ्ट को 37.7 प्रतिशत. गठजोड़ को मिली 76 सीटों में से 44 सीटें अकेले कांग्रेस को मिली थीं और बाकी 32 सीटें लेफ्ट के खाते में गयी थी़ं, लेकिन इस बार 28 फरवरी को कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में रैली के जरिये अपना अभियान शुरू जा रहे इस गठबंधन को उम्मीद है कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस से आजिज आ चुके लोग विकल्प के तौर पर इस बार उसे ही चुनेंगे. लेफ्ट और कांग्रेस में फिलहाल 230 सीटों पर तालमेल हो चुका है. इनमें से 92 सीटें कांग्रेस के हिस्से आयी हैं. हालांकि वह करीब 108 सीटों पर लड़ना चाहती है.

दोनों पार्टियां इस गठबंधन का विस्तार करने में जुटी हैं. इसी कारण सहयोगी दलों के लिए 64 सीटें छोड़ी गयी हैं. इनमें फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बासी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) के अलावा एनसीपी और राजद जैसे दलों को शामिल करने के प्रयास किये जा रहे हैं. असदुद्दीन ओवैसी ने बीते महीने फुरफुरा शरीफ पहुंचकर पीरजादा अब्बासी से मुलाकात की थी और उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कही थी. अब्बासी ने हाल में नयी पार्टी का गठन किया है और कम से कम पचास सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का दावा कर रहे हैं.

मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में यह गठबंधन सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों यानी तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के लिए खतरा बन सकता है. दरअसल, बीते लोकसभा चुनावों में लेफ्ट और काफी हद तक कांग्रेस के वोट बैंक पर भाजपा ने कब्जा कर लिया था. ऐसे में अगर इस बार यह गठबंधन बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपनी खोयी जमीन वापस हासिल करता है, तो उसका खामियाजा भाजपा को ही भुगतना होगा. दूसरी ओर, अब्बासी के गठबंधन में शामिल होने की वजह से तृणमूल कांग्रेस के अल्पसंख्यक वोट बैंक में भी सेंधमारी का अंदेशा है. यह बात भी दीगर है कि भाजपा या तृणमूल कांग्रेस में से कोई भी पार्टी इस गठबंधन को ज्यादा अहमियत देने को तैयार नहीं है.

आइएसएफ ने खुद को मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों की पार्टी घोषित किया है. इस वजह से लेफ्ट नेताओं में उसे लेकर कुछ शंकाएं हैं. उनको अंदेशा है कि भाजपा इस गठबंधन को अल्पसंख्यकों का करीबी बता कर हिंदू वोटरों के धुव्रीकरण का प्रयास कर सकती है.

बिहार विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को मिली कामयाबी के बाद भाकपा (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने भाजपा को सबसे बड़ा दुश्मन मानते हुए बंगाल के लेफ्ट नेताओं को तृणमूल कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने की सलाह दी थी, लेकिन प्रदेश नेतृत्व ने उनके प्रस्ताव को फौरन खारिज कर दिया था. उनकी दलील थी कि पार्टी की निगाहों में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक जैसे दुश्मन हैं.

कांग्रेस और लेफ्ट के नेता बंगाल में भाजपा के उभार के लिए ममता बनर्जी और उनकी पार्टी को ही जिम्मेदार ठहराते हैं. माकपा महासचिव सीताराम येचुरी तो यहां तक कह चुके हैं कि अकेले बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस मिल कर सरकार बना सकते हैं. दूसरी ओर, भाजपा कांग्रेस और लेफ्ट पर केंद्र में कुश्ती और बंगाल में दोस्ती के आरोप लगा रही है.

वर्ष 2011 के बाद हुए तमाम चुनावों में कांग्रेस और लेफ्ट अपने वजूद की रक्षा के लिए जूझते रहे हैं और हर बार उनके वोट कम होते रहे हैं. ऐसे में इन दोनों के लिए पश्चिम बंगाल का चुनाव बेहद अहम है. ये दोनों ही पार्टियां राजनीति के हाशिए पर पहुंच चुकी हैं. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एक बार फिर हाथ मिलाने से क्या इनकी किस्मत बदलेगी? वैसे, यह गठबंधन अगर मजबूती से लड़ता है, तो भले भाजपा और तृणमूल कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सके, पर कइयों का खेल तो बिगाड़ ही सकता है.

Posted By : Sameer Oraon

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