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पेटेंट पर पश्चिमी देशों का अनैतिक रवैया

विश्व व्यापार संगठन में 190 से अधिक देश हैं. यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि पेटेंट छूट जैसे संवेदनशील मसले पर फैसला किस रूप में होता है.

वैक्सीन पेटेंट पर छूट के मसले को मैं आज की स्थिति में उपयोगिता की दृष्टि से देखता हूं. अगर संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार को हटाने का निर्णय हो भी जाता है, तो भारत के संदर्भ में तुरंत इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं होगी. हमारी स्थिति यह है कि हमें वैक्सीन चाहिए. यदि नये सिरे से वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया शुरू की जायेगी, तो इसमें कुछ साल नहीं, तो कई महीने का समय अवश्य लग सकता है. वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया ऐसी नहीं होती, जैसे कोई स्विच ऑन या ऑफ करना है.

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भारत के पास ऐसी क्षमता नहीं है, मेरे कहने का मतलब है कि यदि व्यावहारिक लिहाज से देखा जाये, तो इसमें समय लगेगा क्योंकि प्रक्रिया के अनेक चरण होते हैं. तो, यह सवाल है कि आखिर अभी इसकी उपयोगिता क्या है. यदि पेटेंट में छूट मिल भी जाती है, तो उसके लिए एक समय-सारणी का निर्धारण करना होगा.

विश्व व्यापार संगठन में 190 से अधिक देश हैं. यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि पेटेंट छूट जैसे संवेदनशील मसले पर फैसला किस रूप में होता है. भारत ने बौद्धिक संपदा अधिकार में छूट देने का जो प्रस्ताव रखा है, उसे 120 देशों का समर्थन प्राप्त है, लेकिन विभिन्न आयामों के हिसाब से यह आंकड़ा 80 के आसपास है. प्रस्ताव के पक्ष में व्यापक समर्थन और सहमति जुटाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है.

इसमें बहुत समय लगेगा. इतना ही नहीं, छूट के लिए पेटेंट नियमन के हर प्रावधान, प्रस्ताव और शब्द पर चर्चा होगी. इसका मतलब है कि बातचीत में ही कई महीने गुजर जायेंगे. इसके अंत में ही हम छूट की अपेक्षा कर सकते हैं. यह छूट कोई ऐसी चीज नहीं है कि इसका फैसला अकेले अमेरिका कर सकता है. अमेरिका ने भले ही छूट का समर्थन किया है, पर उसके भीतर ही इस पर सहमति नहीं है. अमेरिका में दवा उद्योग बहुत शक्तिशाली है और पेटेंट का मसला उनके लिए बेहद संवेदनशील है.

राजनीतिक रूप से भी वहां प्रतिरोध होगा. उदाहरण के लिए, अमेरिकी कांग्रेस में छूट के प्रस्ताव को रोकने के लिए कानून बनाने की चर्चा भी चल रही है. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने छूट का जो समर्थन किया है, वह मेरी नजर में ऐसी कोशिश है कि वे खुद को इस छूट को रोकनेवाले व्यक्ति के रूप में नहीं दिखना चाहते. अनेक यूरोपीय देश भी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं.

जर्मनी भी इसे रोकने का प्रयास करेगा. बाइडेन की घोषणा के बाद चांसलर मर्केल ने स्पष्ट कह दिया है कि वे छूट के विरोध में हैं. सो, हमें समझना होगा कि यह पूरा मामला अभी कहीं जाता हुआ नहीं दिख रहा है. अगर छूट मिलती है, तो बहुत अच्छा है. हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि ऐसा हो. पर पेटेंट छूट से हमें कोई तुरंत राहत नहीं मिलेगी.

अब हमारे सामने सवाल है कि अभी बेहतर रास्ता क्या है. एक रास्ता तो यह है कि हमें अपने दरवाजे-खिड़कियां खोलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध अधिक से अधिक टीके हासिल करने का प्रयास करना चाहिए. यह सुझाव विपक्षी दलों ने अपने पत्र में भी दिया है. इसके बाद वैक्सीन का वितरण बड़े पैमाने पर और निशुल्क किया जाना चाहिए ताकि आबादी के अधिकांश हिस्से का टीकाकरण संभव हो सके.

मेरी राय में विपक्षी दलों ने समयबद्ध तरीके से महामारी से जूझने का जो सुझाव दिया है, वह बहुत व्यावहारिक है और उस पर अमल करने की आवश्यकता है. जहां तक पेटेंट का मामला है, तो हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि यह एक बहुत संवेदनशील विषय है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका और चीन के बीच जारी मौजूदा तनातनी का यही मुख्य कारण है.

अमेरिका लगातार आरोप लगाता रहता है कि चीन पेटेंट की चोरी करता है. हम इस मौजूदा संदर्भ में बौद्धिक संपदा अधिकारों को पूरी तरह हटाने की बात नहीं कर रहे हैं, हम केवल एक बार एक छूट चाहते हैं. लेकिन पेटेंट व्यवस्था में समझौते नहीं होते. इस बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता कि ऐसा कभी होगा भी. इस संबंध में हमें बिल्कुल स्पष्ट रहना चाहिए.

पेटेंट में छूट की वर्तमान मांग कोई फायदा उठाने का मसला नहीं है, यह एक आपातस्थिति में राहत से जुड़ा सवाल है. इसलिए यह लेन-देन से तय होनेवाला मुद्दा नहीं है. हमारे पास वैक्सीन की कमी है और इस महामारी से बचने का एकमात्र रास्ता टीकाकरण है. आबादी के अधिक-से-अधिक हिस्से को वैक्सीन देकर ही कोरोना वायरस के संक्रमण की रोकथाम हो सकती है.

अमेरिका और अन्य कुछ देशों के अनुभव यह इंगित करते हैं कि जितनी अधिक संख्या में लोगों का टीकाकरण होगा, महामारी के प्रसार की गति धीमी होती जायेगी. इसलिए वैक्सीन पेटेंट में छूट की मांग कोई कारोबारी या अन्य तरह का लाभ उठाने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को महामारी से बचाने की कोशिश से प्रेरित है.

दुर्भाग्य से हम एक क्रूर दुनिया में रह रहे हैं. इसके रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है. कोरोना महामारी जैसी वैश्विक आपदा की स्थिति में भी, जब लाखों लोगों की मौत हो रही है और करोड़ों लोग संक्रमण की पीड़ा से जूझ रहे हों, एक तरह की सोच पहले जैसी ही बनी हुई है. हम देख रहे हैं कि वैक्सीन का उत्पादन मुख्य रूप से अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों में हो रहा है. यहां तैयार टीकों को अन्य देशों में भेजने से रोका जा रहा है. ब्रिटेन कुछ समझौतों के तहत यूरोप में बन रहे टीकों को अपने यहां जमा कर रहा है.

ऐसा नहीं करने पर दंडात्मक प्रावधानों की व्यवस्था है. ऐसे कुछ देश न केवल अपनी जरूरत के हिसाब से टीका जमा कर रहे हैं, बल्कि उसका बड़े पैमाने पर भंडारण भी कर रहे हैं. वे इन टीकों के निर्यात से भी हिचकिचा रहे हैं क्योंकि किसी को नहीं पता है कि इस वायरस का रंग-ढंग भविष्य में क्या हो सकता है.

यदि महामारी आगे भयावह हो जाती है और उसकी रोकथाम के लिए नये टीकों का विकास जरूरी हो जाता है, तो उस स्थिति में कुछ पश्चिमी देश अपने यहां स्थापित क्षमता को किसी तरह प्रभावित नहीं करना चाहते हैं. वे वर्तमान के साथ भविष्य की तैयारियों में भी जुटे हुए हैं. अगर हम इस स्थिति में नैतिकता के पहलू को जोड़ना चाहते हैं, तो निश्चित रूप से इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन देशों का यह रवैया पूरी तरह से अनैतिक और अमानवीय है. वे केवल अपने बारे में सोच रहे हैं, पर यह जीवन का एक सच है.

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