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संदर्भवश : विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था, बेचैनी में छात्र, विपदा में विश्वविद्यालय

University education system : यह कुछ बानगी भर है पूर्व बिहार-कोसी के चारों विश्वविद्यालयों की. शायद ही कोई दिन हो जब उच्च शिक्षा यानी वो प्लेटफॉर्म, जहां से जिंदगी के सबसे हसीन काल में छलांग लगाते हैं, वहां से कोई ऐसी खबर आयी हो जो सुकून दे जाये.

University education system : यह कुछ बानगी भर है पूर्व बिहार-कोसी के चारों विश्वविद्यालयों की. हालात यह है कि यहां पढ़ने-पढ़ाने या काम करनेवाले लोगों की सुबह अब ताजगी लेकर नहीं आती. अखबारनवीस होने के नाते रोज-रोज आती खबरें बेचैन करती हैं. शायद ही कोई दिन हो जब उच्च शिक्षा यानी वो प्लेटफॉर्म, जहां से जिंदगी के सबसे हसीन काल में छलांग लगाते हैं, वहां से कोई ऐसी खबर आयी हो जो सुकून दे जाये.

आप मानें न मानें, पर स्कूल की चहारदिवारी से निकल कर विश्वविद्यालय में प्रवेश किसी भी छात्र का सपना होता है. यह उसके जीवन का सबसे रोमांचक काल है. पर हालात यह है कि इस हसीन सपना को पंख लगाने की जगह नामांकन, पढ़ाई, परीक्षा, रिजल्ट, लेट सत्र व डिग्री के बीच विद्यार्थी और उसके अभिभावक चकरघिन्नी बनकर रह गये हैं. दूसरी ओर प्रभार, कम मैनपावर और असुविधा के बीच प्रतिष्ठा बचाने में लगे हैं कार्यरत कर्मी-अधिकारी.

दरअसल, शिक्षा के ये सारे मंदिर धीरे-धीरे पावर के खेल में खंडहर में तब्दील होते जा रहे. पावर समेटने और दायित्व को दूसरे पर डालने की परंपरा ने इसे रसातल तक पहुंचा दिया है. बची-खुची कसर कुलपतियों के होने, न होने ने पूरी कर दी. बात करें इससे जुड़ी विभिन्न समितियों की, तो पहले यह आदर्श प्रस्तुत करतीं थी, अब केवल प्रतिष्ठा बनाने का मंच बनकर रह गयी हैं. अपवाद हर जगह है, पर रेत की आंधी में उनकी स्थिति की कल्पना की जा सकती है.

यही कारण है कि लगभग छह दशक पुराने तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय में नामांकन में केवल इसलिए देरी हुई, क्योंकि नामांकन के लिए जिस पोर्टल वाले से करार है उसको पेमेंट नहीं हुआ और उसने पोर्टल खोलने से मना कर दिया. पांच हजार डिग्री हस्ताक्षर के इंतजार में धूल खा रही, तो दूसरी ओर विवि की बिजली तक काट दी गयी, क्योंकि प्रभारी कुलपति भी प्रभारी के भरोसे विश्वविद्यालय चला रहे हैं. और सब कुछ फंसता या हाथ से फिसलता जा रहा है.

यहां कार्यरत लोगों की बात करें, तो उनकी पीड़ा भी कम नहीं. एक महत्वपूर्ण कॉलेज के प्राचार्य का कहना था कि डस्टर व चॉक खरीदने को पैसे नहीं. उन जैसों की परेशानी सुननेवाला कोई नहीं. पर ध्यान रहे वो नौकरी कर रहे. उनके जीवन की नैया हिलते-डुलते भी किसी न किसी घाट जरूर लगेगी, पर विद्यार्थियों के जीवन के इस कालखंड की कैसे भरपाई होगी. याद रखें हम सबके घर में बच्चे हैं, उनको देखें और महसूस करें कि स्कूल से पहली बार कॉलेज आये कोरे मन पर इस माहौल में कौन सा रंग भरेगा और क्या उनकी दुनिया हसीन बनेगी.

अंत में…

पूर्व बिहार कोसी क्षेत्र के छह दशक पुराने तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय की बात करें तो यहां कभी दिनकर कुलपति हुआ करते थे. इसके प्रमुख कॉलेज टीएनबी में पढ़ना गौरव की बात थी. आज बात अलग हो गयी है. भले ही विचार अलग-अलग हों पर विश्वविद्यालय की खोई हुई गरिमा के लिए एक बार खुले मन से आगे आना ही होगा. बात निकलेगी तभी बात बनेगी. वरना कहीं विश्वास का संकट न हो जाये.

जीवेश रंजन सिंह, वरीय संपादक, प्रभात खबर

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