–किरण पांडे-
Climate-Change : अमेरिका स्थित शोध समूह क्लाइमेट सेंट्रल के एक नये अध्ययन ने चेतावनी दी है कि 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत किये गये वादे भी वैश्विक तापमान वृद्धि के खतरनाक स्तर को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. अध्ययन से पता चलता है कि यदि मौजूदा रुझान जारी रहता है, तो इस शताब्दी के अंत तक दुनिया 2.6 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो सकती है तथा उसे हर वर्ष 57 अतिरिक्त दिन भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है. वर्ष 2015 से अब तक पृथ्वी लगभग 0.3 डिग्री गर्म हो चुकी है, यानी एक दशक पूर्व की तुलना में हर वर्ष 11 अतिरिक्त गर्म दिन जुड़े हैं.
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश के लिए भी खतरा दूर नहीं है. आज औसत भारतीय को प्रतिवर्ष लगभग 48 दिनों तक अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ रही है. तापमान में 2.6 डिग्री की वृद्धि के साथ यहां अत्यधिक गर्मी के दिनों की संख्या बढ़कर 71 तक होने की आशंका है. मजबूत वैश्विक कार्रवाई के बिना, भारत को प्रतिवर्ष लगभग 101 दिन भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है. देश के 30 से अधिक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश पहले से ही हर वर्ष 45 से 90 दिनों तक भीषण गर्मी झेल रहे हैं, जिससे स्वास्थ्य, खेती और आजीविका पर संकट मंडरा रहा है. क्लाइमेट सेंट्रल के अध्ययन की मानें, तो इस सदी के अंत तक अधिकांश राज्यों को 20 से 30 अतिरिक्त गर्म दिनों का सामना करना पड़ सकता है, तथा 21 राज्यों में यह वृद्धि राष्ट्रीय औसत से अधिक हो सकती है.
तापमान बढ़ने से भारत के तटीय और द्वीपीय क्षेत्र सर्वाधिक तेजी से गर्म हो रहे हैं. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में तापमान में 2.6 डिग्री की वृद्धि के साथ अत्यधिक गर्म दिनों की संख्या आज के 106 से बढ़कर 230 हो सकती है, और यदि दुनिया चार डिग्री तक तक गर्म हो जाती है, तो यह संख्या बढ़कर 327 हो सकती है. गोवा में भी अत्यधिक गर्म दिनों की संख्या 47 से बढ़कर 117 हो सकती है और तापमान में चार डिग्री की वृद्धि से यह 204 पर पहुंच सकती है. केरल और पुद्दुचेरी में भी समुद्र के गर्म होने और बढ़ती आर्द्रता से मछली पकड़ने, पर्यटन और जन स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ने की आशंका है.
गंगा के मैदानी क्षेत्रों- दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब- में भी भीषण गर्मी के दिनों की संख्या में 70 से 90 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकती है, जिससे फसलों की पैदावार और पानी की उपलब्धता में भारी कमी आयेगी और खुले में काम करने वाले लाखों मजदूरों के काम के घंटे सीमित हो जायेंगे. हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर जैसे पहाड़ी राज्य भी इससे अछूते नहीं रहेंगे. इस शताब्दी के अंत तक इन क्षेत्रों को भी 100 से 170 दिन तक भीषण गर्मी झेलनी पड़ सकती है. हमें समझना होगा कि अत्यधिक गर्मी अब केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं रह गयी है, यह जन स्वास्थ्य और आर्थिक आपातकाल में तब्दील हो गयी है.
हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि गर्मी और लू से जुड़ी मौतें, जो 2021 में 374 थीं, वे बढ़कर 2023 में 804 पर पहुंच गयीं. हीट वॉच के आंकड़े बताते हैं कि अकेले 2024 में ही अत्यधिक गर्मी से कम से कम 733 लोगों की मौत हुई. दिन में तो चढ़ता पारा लोगों को संकट में डालता ही है, सूर्यास्त के बाद भी इसका कहर शांत नहीं होता. भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि मार्च से जून 2024 के बीच कम से कम 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की रातें भी असामान्य रूप से गर्म दर्ज की गयीं.
बढ़ती गर्मी भारत की आर्थिक उत्पादकता को भी कम कर रही है. लैंसेट पत्रिका के नवीनतम अनुमानों की मानें, तो गर्मी के कारण देश को 2024 में रिकॉर्ड 247 अरब संभावित श्रम घंटे का नुकसान हुआ है. ग्लोबल चेंज बायोलॉजी के एक अध्ययन ने आशंका जतायी है कि 2100 तक हीट स्ट्रेस के कारण भारत जैसे देशों की श्रम उत्पादकता 40 प्रतिशत तक गिर सकती है. वैज्ञानिकों ने चेताया है कि यदि वैश्विक तापमान में दो डिग्री की वृद्धि होती है, तो लू की बारंबारता 30 गुना बढ़ सकती है. ऐसे में न केवल उत्पादकता में और कमी आयेगी, बल्कि आय भी घटेगी तथा आर्थिक संकट भी बढ़ेगा. बढ़ता तापमान स्वास्थ्य और श्रम के साथ-साथ भारत की प्राकृतिक प्रणालियों को भी अस्थिर कर रहा है- विशेष रूप से इसके जल संसाधन को. अत्यधिक गर्मी नदियों, झीलों और जलभृतों को सुखा रही है.
भारत की लगभग तीन-चौथाई जनसंख्या उच्च ताप जोखिम वाले क्षेत्रों में रह रही है, इसलिए तत्काल कार्रवाई अब वैकल्पिक नहीं रह गयी है. ताप प्रबंधन के लिए भारत को अब अल्पकालिक राहत से दीर्घकालिक लचीलेपन की ओर बढ़ना होगा. इसका अर्थ है कि भूगोल और व्यवसाय के आधार पर जोखिमों का मानचित्रण करना, तापमान से निपटने की तैयारी को आवास, श्रम अधिकारों और सामाजिक सुरक्षा से जोड़ना और सामुदायिक भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा. शहरों को बेहतर चेतावनी प्रणालियों, ठंडे आश्रय स्थलों और वृक्षों से घिरे सार्वजनिक स्थानों की जरूरत है. राष्ट्रीय स्तर पर देश को पूर्व चेतावनी प्रणालियों, जलवायु अनुकूल खेती, जल संरक्षण व स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करना होगा. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

