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पुण्यतिथि : आजीवन जनता की चेतना जगाते रहे बाबा नागार्जुन

Baba Nagarjuna : नागार्जुन का जन्म मिथिला के एक गांव सतलखा में हुआ था, तरौनी उनका पैतृक गांव था. मैथिली में उनकी पहली कविता 1930 में छपी थी और 1932 में उनका विवाह अपराजिता देवी से हुआ.

Baba Nagarjun : हिंदी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि नागार्जुन उपन्यासकार और विचारक रहे हैं. उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था, लेकिन वह साहित्य की दुनिया में ‘नागार्जुन’ नाम से प्रसिद्ध हुए और बाबा नागार्जुन कहलाये. बचपन में ठक्कन मिश्र भी एक नाम रहा. मार्च, 1963 के ‘सारिका’ के अंक में संपादक मोहन राकेश ने ‘आईने के सामने’ बाबा को बिठा ही दिया, तो उन्होंने केशव के बहाने अपना सच लिखना लाजिमी समझा, ‘केसब, केसन अस करी/जस कसहू न कराहिं/चंद्रबदनि मृगलोचनी/’बाबा’ कहि कहि जाहिं. मगर कसम ईमान की, शपथ जनता जनार्दन की, मुझे तो अपना यह ‘बाबा’ संबोधन बेहद प्रिय है. किशोरी हो चाहे युवती, कोई भी चंद्रवदना मृगनयनी अपने राम को ‘बाबा’ कहती है, तो वात्सल्य के मारे इन आंखों के कोर गीले हो जाते हैं! अपनी प्रथम पुत्री जीवित रहती, तो सत्रह साल की होती… शादी करने के बाद घर से भागा न होता, तो हमारी यह चंद्रबदनी-मृगलोचनी 30-32 वर्ष की होती.’


नागार्जुन का जन्म मिथिला के एक गांव सतलखा में हुआ था, तरौनी उनका पैतृक गांव था. मैथिली में उनकी पहली कविता 1930 में छपी थी और 1932 में उनका विवाह अपराजिता देवी से हुआ. घुमंतू स्वभाव के नागार्जुन विवाह के बाद भी लगभग घुमंतू ही बने रहे. श्रीलंका में उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और नाम बदलकर ‘नागार्जुन’ कर लिया. वर्ष 1938 में भारत लौट कर किसान आंदोलन में भागीदारी की और तीन बार जेल गये. राहुल सांकृत्यायन के सान्निध्य में भी वह रहे. फक्कड़ी का आलम यह था कि आठ-आठ पृष्ठों की मैथिली काव्य पुस्तिका तैयार कर उन्होंने ट्रेन में बेची भी.

नागार्जुन ने राजनीति में भी सक्रिय भाग लिया और आपातकाल के दौरान जेल गये. वे आजीवन हिंदी की प्रगतिशील साहित्य धारा से जुड़े रहे. उनकी रचनाएं जनता की चेतना जगाने का कार्य करती रहीं. उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा, पर कवि के रूप में उनकी ख्याति सबसे अधिक थी. त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल और नागार्जुन की तिकड़ी में सबसे ज्यादा लोकप्रिय वही थे. वह आम जनता के दुख-दर्द, किसान-मजदूरों की पीड़ा और सत्ता के विरोध को निर्भीकता से अपनी रचनाओं में व्यक्त करते थे.


मिथिलांचल के सामाजिक राजनीतिक जीवन को नागार्जुन अपने आधे दर्जन से अधिक उपन्यासों में उजागर करते हैं. किंतु उसका एक विशेष देशकाल और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है. जनपदीय संस्कृति और लोकजीवन उनकी कथा सृष्टि का चौड़ा फलक है. उन्होंने कहीं तो आंचलिक परिवेश में किसी ग्रामीण परिवार के सुख-दुख की कहानी कही है, तो कहीं मार्क्सवादी सिद्धांतों की झलक देते हुए सामाजिक आंदोलनों का समर्थन किया है, तो कहीं समाज में व्याप्त शोषण वृत्ति एवं धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात किया है.

बनारस के वाचस्पति का कहना है कि मिथिला के बंद समाज से बाहर निकल कर बाबा ने अपनी तमाम रचनाओं और सहज-सुलभ व्यक्तित्व से ऐसा जागरण फैलाया, जिसकी आज कहीं ज्यादा जरूरत है. वह सच्चे अर्थों में क्लासिकल मॉडर्न थे. नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है. उनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में उनके जीवनकाल में तो प्रकाशित होती ही रही हैं, अब भी उनकी राजनीतिक कविताएं पत्रिकाओं में पढ़ने को मिल जाती हैं. कवि की हैसियत से नागार्जुन प्रगतिशील और एक हद तक प्रयोगशील भी रहे हैं.

उनकी अनेक कविताएं प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण सहजभाव-सौंदर्य से दीप्त हो उठती हैं. आधुनिक हिंदी कविता में शिष्ट गंभीर हास्य तथा सूक्ष्म चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से भी उनकी रचनाएं अलग पहचान बनाने में सक्षम रहीं. उन्होंने कहीं-कहीं सरस मार्मिक प्रकृति चित्रण भी किया है. नागार्जुन की कुछ कविताओं में संस्कृत के कठिन तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में मिलता है, किंतु उनके अधिकांश कविताओं की भाषा में सहज और सरल शब्द का ही प्रयोग देखने को मिलता है.


बाबा नागार्जुन को संसार से विदा हुए 27 वर्ष होने को आये. लेकिन आज भी हिंदी-मैथिली की युवा पीढ़ी उन्हें शिद्दत से याद करती है. उनके अंदर एक बच्चा हमेशा बैठा रहा, जो अपने अंतिम दिनों में अतिरिक्त संवेदनशील और अत्यंत आग्रही होता चला गया था. अंतिम दिनों में वह दरभंगा लौट गये थे. उसके पीछे मिथिला के प्रति उनका अगाध प्रेम कारण था. उन्होंने वर्षों पहले मैथिली में एक कविता लिखी थी, जिसका भावार्थ यही था कि ‘यूं तो समूचा विश्व, सारी भूमि, सारे लोग मुझे प्रिय हैं, लेकिन मेरा मन जिसके लिए आकुल रहता है, वह तो अपना देश मिथिला ही है.’ (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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