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उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय रस्साकशी

मायावती ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने के लिए तो रणनीति बना रही हैं, लेकिन दलित आधार को एकजुट रखे बिना उच्च जातियों का समर्थन उन्हें सत्ता तक शायद ही पहुंचा सके.

मायावती ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने के लिए तो रणनीति बना रही हैं, लेकिन दलित आधार को एकजुट रखे बिना उच्च जातियों का समर्थन उन्हें सत्ता तक शायद ही पहुंचा सके. नाव जीतने की जातीय फॉर्मूला कितनी तेजी से बदलता रहता है, यह आजकल उत्तर प्रदेश में देखा जा सकता है. वहां अगले साल की शुरुआत में यानी कुछ ही महीनों बाद विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं.

दलितों व अति पिछड़ों की राजनीतिक गोलबंदी से राज्य की बड़ी ताकत बनीं और चार बार सत्ता में आ चुकी मायावती एक बार फिर ब्राह्मणों को खुश करने की कोशिश में जुट गयी हैं. उधर, सवर्णों की पार्टी के रूप में जानी जानेवाली भाजपा दलितों व पिछड़ों के लिए लाल कालीन बिछाये बैठी है. तीस साल से सत्ता से बाहर और हाशिये पर पहुंच चुकी कांग्रेस प्रियंका गांधी के सहारे ब्राह्मणों, दलितों व मुसलमानों के परंपरागत वोट बैंक को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है, तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने मजबूत यादव-मुस्लिम आधार में भाजपा से खिन्न चल रही जातियों को खींचने की रणनीति बना रहे हैं.

कांशीराम ने जिस दलित-अति पिछड़ा-मुस्लिम जातीय समीकरण से बसपा को मजबूती से खड़ा किया था, उस आधार को बहुमत के लिए अपर्याप्त मान कर मायावती ने 2007 में उसमें ब्राह्मणों को चतुराई से जोड़ा और पहली बार पूर्ण बहुमत पाया था. ‘मनुवादियों’ को गले लगाने की इस चुनावी रणनीति को उनकी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ कहा गया था. साल 2012 के चुनावों में यही सोशल इंजीनियरिंग अपने तीखे अंतर्विरोधों के कारण उन्हें महंगी पड़ी.

फिर 2014 आते-आते भाजपा ने अपने नये अवतार में इसी सोशल इंजीनियरिंग को ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे के तहत बड़ी चतुराई से अपनाया. उसने अपने को गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों की उद्धारक के रूप में पेश किया. इससे दलित एवं पिछड़ी जातियों-उपजातियों के अंतर्विरोध गहरे हुए और वे बड़े वोट बैंक से छिटक गये.

भाजपा ने इन अंतर्विरोधों को खूब हवा दी. परिणामस्वरूप अति पिछड़ी जातियों का नेतृत्व उभरा, जिसे भाजपा ने अपने पाले में खींच लिया. इससे बसपा और सपा का जनाधार कमजोर हो गया. साल 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा की भारी जीत मुख्यत: इसी दलित-पिछड़ा जोड़-तोड़ के कारण संभव हुई.

इस सफल रणनीति को भाजपा 2022 के लिए न केवल कायम रखने में लगी है, बल्कि उसे और मजबूत करने का जतन कर रही है. केंद्रीय मंत्रिपरिषद का हालिया विस्तार साफ बताता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के लिए इस रणनीति को कितना महत्व दे रही है. जो सात नये मंत्री उत्तर प्रदेश से मोदी सरकार में शामिल किये गये, उनमें छह पिछड़ा या दलित हैं, सवर्ण (ब्राह्मण) सिर्फ एक है.

उत्तर प्रदेश से अब 16 मंत्री हो गये हैं. यह न केवल अब तक की सबसे बड़ी संख्या है, बल्कि इसी जातीय समीकरण को पुष्ट करती है. उदाहरण के लिए, अपना दल की अनुप्रिया पटेल को न केवल वापस शामिल किया गया, बल्कि बेहतर मंत्रालय भी दिया गया है. अपना दल यादवों के बाद सबसे ताकतवर कुर्मियों का प्रतिनिधित्व करता है. क्या भाजपा के इस दलित-पिछड़ा प्रेमालाप से सवर्ण जातियां, विशेष रूप से ब्राह्मण, खिन्न हैं?

भाजपा को तो ऐसा नहीं लगता (मुख्यमंत्री, एक उप-मुख्यमंत्री और कई मंत्री उच्च जातियों के हैं), लेकिन विपक्ष, खासकर मायावती इसे खूब प्रचारित कर रही हैं, ताकि ब्राह्मण एक बार फिर उन्हें समर्थन दे दें. बीते रविवार को मायावती ने ऐलान किया कि मुझे पूरा भरोसा है कि अब ब्राह्मण समाज बहकावे में आकर भाजपा को वोट नहीं देगा. उनके अनुसार ब्राह्मण अब पछता रहे हैं.

ब्राह्मणों को भरोसा दिलाने के लिए बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के नेतृत्व में 23 जुलाई को अयोध्या से एक अभियान भी शुरू किया जा रहा है. मिश्र मायावती के विश्वस्त और बसपा का बड़ा ब्राह्मण चेहरा हैं. साल 2007 में उन्होंने ही बसपा के ‘ब्राह्मण भाईचारा अभियान’ का नेतृत्व किया था. मायावती ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने के लिए तो रणनीति बना रही हैं, लेकिन जो दलित जातियां उनके पाले से छिटक चुकी हैं, उन्हें वापस लाने के लिए उनकी क्या योजना है, इसका संकेत नहीं मिलता.

उनके जाटव जनाधार में भी भीम आर्मी ने कुछ सेंध लगायी है. दलित आधार को एकजुट रखे बिना उच्च जातियों का समर्थन उन्हें सत्ता तक शायद ही पहुंचा सके. अखिलेश यादव भी सपा से दूर हो गये पिछड़े नेताओं को साधने में सक्रिय हो गये हैं. उन्होंने किसी बड़े दल से चुनावी गठबंधन की संभावना से इनकार किया है, लेकिन छोटे दलों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं. ये ‘छोटे दल’ वास्तव में विभिन्न पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं के हैं, जो सत्ता की वर्तमान जोड़-तोड़ में बड़े दलों से समर्थन की अधिकाधिक कीमत वसूलने की फिराक में रहते हैं.

कुर्मियों के ‘अपना दल’ का एक हिस्सा भाजपा के साथ है, तो दूसरे को सपा और कांग्रेस रिझाने में लगे हैं. ‘निषाद पार्टी’, जिसका मल्लाह, केवट, निषाद और बिंद जातियों में प्रभाव है, फिलहाल भाजपा के साथ होने के बावजूद अपनी नाराजगी व्यक्त करता रहता है, जिस पर अखिलेश यादव की निगाह है. मौर्यों, कुशवाहों और सैनियों के ‘महान दल’ को सपा ने फिलहाल अपने साथ कर लिया है. पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटों में लोकप्रिय राष्ट्रीय लोक दल सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ना तय कर चुका है. ‘आप’ के कुछ नेताओं से भी अखिलेश की बातचीत चर्चा में रही.

बिहार चुनाव में पांच सीटें जीतकर महागठबंधन का खेल बिगाड़नेवाले ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी भी यूपी में दांव आजमायेंगे. उन्होंने भाजपा से नाराज होकर एनडीए से अलग हुए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ ‘भागीदारी संकल्प मोर्चा’ बनाया है, जिसमें बाबू सिंह कुशवाहा (कभी मायावती के विश्वस्त) की जन अधिकार पार्टी, प्रजापतियों की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी, राष्ट्रीय उदय पार्टी और जनता क्रांति पार्टी भी शामिल होंगी, ऐसे बयान आये हैं. ‘आप’ और भीम आर्मी को भी दावत दी गयी है.

ये छोटे-छोटे दल स्वयं चुनाव नहीं जीत सकते, लेकिन उनका समर्थन बड़े दलों के लिए अहम हो जाता है. ये दल कब किसके साथ हो जाएं, कहा नहीं जा सकता. सपा के अलावा कांग्रेस भी इन्हें अपने साथ लेने के लिए बातचीत कर रही है.

विभिन्न दलित एवं पिछड़ी जातियों के भीतर इस राजनीतिक जोड़-तोड़ ने छोटी या कम संख्यावाली जातियों में भी सामाजिक-राजनीतिक सशक्तीकरण का काम किया है. वे भी सत्ता में अपनी भागीदारी के लिए संगठित हुए हैं. वे किसी भी तरफ जा सकते हैं, जहां अधिक से अधिक भागीदारी का आश्वासन मिले. इससे उत्तर प्रदेश का जातीय चुनावी रण बहुत रोचक हो गया है.

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