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नवाचार में भारत की बड़ी छलांग

जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी प्रतिभा को पहचान कर गुणीजन प्रोत्साहित कर कल्पना को पंख देने का माहौल दें, तो ग्रामीण भारत से अनेक वैज्ञानिक-अाविष्कारक निकल सकते हैं.

भारत ने नवाचार के क्षेत्र में उन्नति करते हुए वैश्विक सूचकांक में 46वां स्थान पाया है. यह सूचकांक विश्व बौद्धिक संपदा संगठन जारी करता है. यह बढ़त बीते सात साल में हुई है. साल 2015 में भारत 81वें स्थान पर था. इतने कम समय में 37 पायदान चढ़ना बड़ी बात है. विश्वव्यापी औद्योगिक-वैज्ञानिक आर्थिकी में नवाचार क्षमता का यह दखल अहम है.

इस सदी में विकास और रोजगार के क्षेत्र में प्रगति में नवाचार ही वह माध्यम है, जो किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने में सहायक है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक पहलें की हैं. इनमें राष्ट्रीय नवाचार परिषद, अटल इनोवेशन मिशन और भारत समावेशी नवाचार कोष जैसी संस्थाएं शामिल हैं. नवीन अनुसंधान और नवाचार की जितनी संभावनाएं भारत में हैं, उस नाते एक ऐसी संस्था की भी जरूरत है, जो ऐसे नवाचारियों को प्रोत्साहित करे, जो बिना अकादमिक शिक्षा पाये ही बेहद उपयोगी अविष्कार कर रहे हैं.

हमारे देश में अब भी शोध और नवाचार में निवेश सकल घरेलू उत्पादन का मात्र एक प्रतिशत ही है. यह चीन में 2.1, अमेरिका में 2.8, दक्षिण कोरिया में 4.2 और इस्राइल में 4.3 प्रतिशत तक है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने सलाह दी है कि भारत को नवप्रवर्तन, औद्योगिक अनुसंधान एवं विकास में अग्रणी बनने के लिए इस मद में निजी क्षेत्र का खर्च भी बढ़ाना होगा.

फिलहाल विश्व बाजार में सूचना प्रौद्योगिकी, दवा उद्योग और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारत की उपलब्धियों को मान्यता मिल रही है. भारत कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक जैसी अत्यंत नयी तकनीक में भी प्रगति कर रहा है. ब्लूमबर्ग के वार्षिक नवाचार सूचकांक में भी भारत को विनिर्माण क्षमता विस्तार और सार्वजनिक संस्थानों में उच्च तकनीक का विस्तार करने के लिए रेखांकित किया गया है. नीति आयोग के अंतर्गत 2019 से नवाचार सूचकांक भी जारी हो रहा है.

इस सूची में कर्नाटक पहले पायदान पर हैं. तमिलनाडु, महाराष्ट्र, तेलंगाना और हरियाणा भी इस प्रतिस्पर्धा में शामिल हैं. हिंदी पट्टी के बड़ी आबादी वाले राज्य इस चुनौती को स्वीकारने में पिछड़ रहे हैं. इसका प्रमुख कारण विज्ञान, तकनीक और रोजगार कौशल के ज्ञान को अंग्रेजी में देना भी है. यदि नयी शिक्षा नीति के माध्यम से विज्ञान व तकनीकी विषयों को उच्च शिक्षा संस्थानों में मातृभाषाओं में पढ़ाने का सिलसिला शुरू होता है, तो कालांतर में यह स्थिति बदल सकती है.

फिलहाल 14 इंजीनियरिंग कॉलेजों ने इस नीति के तहत पांच भारतीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम जारी कर दिये हैं. अभी इन पाठ्यक्रमों के लिए जरूरी पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं. मातृभाषाओं में पढ़ानेवाले अध्यापकों की भी कमी है. इन क्षेत्रों में जल्द सुधार की आवश्यकता है.

हालांकि दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने की दृष्टि से भारत का तीसरा स्थान है, लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संबंधी साहित्य सृजन में पाश्चात्य लेखकों का ही बोलबाला है. आविष्कारक वैज्ञानिक को जिज्ञासु एवं कल्पनाशील होना जरूरी है. कोई वैज्ञानिक कितना भी शिक्षित क्यों न हो, वह कल्पना के बिना कोई मौलिक या नूतन आविष्कार नहीं कर सकता है. अविष्कार कल्पना की वह श्रृंखला है, जो कुछ नितांत नूतन करने की जिज्ञासा को आधार देती है. सूक्ष्मजीवों का अध्ययन करनेवाले पहले वैज्ञानिक ल्यूवेनहॉक द्वारपाल थे और लेंसों की घिसाई का काम करते थे.

लियोनार्दो विंची कलाकार थे. आइंस्टीन पेटेंट कार्यालय में लिपिक थे. न्यूटन अव्यावहारिक और एकांतप्रिय थे. थॉमस अल्वा एडिसन को मंदबुद्धि बता कर प्राथमिक पाठशाला से निकाल दिया गया था. इसी बालक ने कालांतर में बल्ब और टेलीग्राफ का आविष्कार किया. फैराडे पुस्तकों पर जिल्दसाजी का काम करते थे. उन्होंने विद्युत मोटर और डायोनामो का अविष्कार किया.

ऐसे सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं. कंप्युटर सॉफ्टवेयर बनानेवाले बिल गेट्स का शालेय पढ़ाई में मन नहीं रमता था. स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक रोगों की पहचान कर दवा बनानेवाले आविष्कारक भी चिकित्सा विज्ञानी या चिकित्सक नहीं थे. आयुर्वेद उपचार और दवाओं का जन्म तो हुआ ही ज्ञान परंपरा से है. हम कह सकते हैं कि प्रतिभा जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी होती है. इसे पहचान कर गुणीजन व शिक्षक प्रोत्साहित कर कल्पना को पंख देने का माहौल दें, तो भारत की ग्रामीण धरती से वैज्ञानिक-आविष्कारक निकल सकते हैं.

भारत में देसी जुगाड़ की पूरी परंपरा है, फिर भी इन्हें कम ही मान्यता मिल पाती है. कोरोना महामारी ने भी नये आविष्कारों को जन्म देने का रास्ता खोला है. ऑक्सीजन कंस्ट्रेटर बनानेवाले इस्माइल मीर बारहवीं तक पढ़े हैं. विज्ञान और तकनीक के प्रति बचपन से ही उनकी रुचि थी. वे तरह-तरह के उपकरण जुगाड़ से बनाते रहे हैं. कंस्ट्रेटर की जो सस्ती प्रतिकृति उन्होंने बनायी है, उसकी कीमत महज 15 हजार रुपये है.

वे स्वचालित वेंटिलेटर भी बना चुके है, लेकिन उन्हें अब तक कोई मान्यता नहीं मिली है. कर्नाटक के एक अशिक्षित किसान गणपति भट्ट ने पेड़ पर चढ़नेवाली बाइक का अविष्कार कर उच्च शिक्षित वैज्ञानिकों व वैज्ञानिक संस्थाओं को हैरानी में डाल दिया है. यह मोटरसाइकल चंद पलों और कम खर्च में नारियल एवं सुपारी के पेड़ों पर चढ़ जाती है. उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने इस आश्चर्यजनक नवाचार की प्रशंसा की है और वे इसके व्यावसायिक इस्तेमाल की संभावनाएं तलाश रहे हैं. ऐसा होने से ग्रामीण परिवेश के अशिक्षित व अकुशल खोजी वैज्ञानिकों के नवाचार सामने आने की प्रक्रिया को बल मिलेगा.

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