11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय तंत्र में सुधार हो

आर्थिक सत्ता संतुलन एशिया की ओर खिसक रहा है. साम्यवाद की तरह थोपी गयी वाशिंगटन सर्वसम्मति की विचारधारा असफल होती दिख रही है.

पिछले वित्तीय संकट से दुनिया बाल-बाल बची थी, जब एक के बाद एक अमेरिकी बैंक धराशायी हो रहे थे. तब राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन ने बैंकों और वाहन उद्योग को बचाने के लिए लगभग एक ट्रिलियन डॉलर की राशि दी थी. यह राशि मुहैया कराने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक के छापाखानों को दिन-रात छपाई करनी पड़ी थी. ऐसे में यह अचरज की बात नहीं है कि अधिकतर मुद्राओं की तुलना में डॉलर का अवमूल्यन हो रहा है.

अब राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अर्थव्यवस्था को नयी ऊंचाई देने तथा लगभग पूर्ण रोजगार मुहैया कराने के लिए 3.5 ट्रिलियन डॉलर लगाया है. अमेरिकी डॉलर दुनिया की सबसे पसंदीदा मुद्रा है और लगभग 70 फीसदी वैश्विक मुद्रा भंडार इसी मुद्रा में रखा जाता है. शेष का अधिकांश यूरो में है. इससे जाहिर है कि अमेरिका विश्व का पसंदीदा बैंकर है, पर अगर अमेरिका डॉलर की आपूर्ति इसी तरह जारी रखेगा, तो डॉलर भंडार का मूल्य भी घटता रहेगा.

अब इस तंत्र की कार्यप्रणाली को देखते हैं. चीन और भारत जैसे देश अमेरिका में उपभोग के लिए सस्ते खर्च पर सेवाओं व वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जो उन्हें डॉलर में भुगतान करता है, जिसे ये देश कमोबेश अमेरिकी बैंकों में जमा कर देते हैं. चूंकि पैसा पड़ा नहीं रहता, सो अमेरिकी बैंक इसे अमेरिकियों को उधार दे देते हैं, जो दुनिया में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति कर्जदार हैं.

चीन, रूस, जापान, कुवैत, भारत और अन्य देश अमेरिकी सिक्योरिटीज में अधिक से अधिक एक-डेढ़ प्रतिशत के ब्याज दर पर निवेश करते रहे हैं. इसका अर्थ यह है कि शेष विश्व अमेरिका को सस्ते दर पर उधार देता रहा है, जिससे उसे और बेमतलब खर्च करने का प्रोत्साहन मिलता है. दुर्भाग्य से कोई वैश्विक नियामक ऐसा नहीं रहा, जो अमेरिका को चेताये और रवैया बदलने को कहे.

जुलाई, 1944 की ब्रेटन वुड्स कांफ्रेंस दूसरे महायुद्ध की छाया में हुई थी और तब केवल अमेरिका ही बर्बादी से बचा हुआ था. तब अमेरिका आज की तुलना में कहीं बहुत अधिक बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति था. ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस और अमेरिकी अर्थशास्त्री डेक्स्टर व्हाइट ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली के नियमन की व्यवस्था करनेवाले दलों का नेतृत्व किया था. इसका त्वरित परिणाम था अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्थापना.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा और केंद्रीय बैंक बनाने के कींस के सुझाव को अमेरिकी आपत्ति के कारण नहीं लागू किया जा सका. भुगतान असंतुलन के बारे में कींस ने सलाह दी थी कि देनदार और लेनदार अपनी नीतियों को बदलें. बहरहाल, अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक घाटे का देश है और शायद उसे कोई चिंता भी नहीं है. इस तथ्य को मुद्रा कोष ने भी नजरअंदाज किया है. यह तथ्य और डॉलर का पसंदीदा रिजर्व मुद्रा बनना दुनिया की आर्थिक समस्या की जड़ हैं.

साल 1971 में इस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने किनारा करते हुए डॉलर को सोने के मूल्य के हिसाब से अलग कर दिया. एक स्तरीय और उपयोगी नियमन की अनुपस्थिति और फिर रीगन-थैचर युग में बड़े निजी बैंकों को मनमाना व्यवहार करने का लाइसेंस दे दिया गया. अब हमें उसका नतीजा भुगतना पड़ रहा है. उधर अमेरिका के बढ़ते व्यापार घाटे के कारण चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया समेत अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं में बढ़ोतरी हुई. इस पृष्ठभूमि में इस साल के शुरू में जी-20 देशों की बैठक हुई थी. अब हम एक बहुत अलग दुनिया में हैं.

अब कोई कींस जैसा दूरदर्शी अर्थशास्त्री हमारे बीच नहीं है. ऐसा हो भी कैसे सकता है, जब आर्थिक व वित्तीय आभिजात्यों ने लंबे समय से एलन ग्रीनस्पैन जैसों को सर पर उठा रखा हो! या जब दुनिया के आर्थिक एजेंडे को तय करने का काम निजी हाथों में और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम जैसे संदेहास्पद स्वयंसेवी संस्थाओं को दे दिया गया हो! फ्रैंकलिन रूजवेल्ट या विंस्टन चर्चिल जैसे कद्दावर नेता भी अब नहीं हैं. कुछ दशकों से सकल वैश्विक उत्पादन तेज दर से बढ़ रहा है. साल 1985 में यह दर 2.76 प्रतिशत थी, जबकि 2005 में यह 3.56 प्रतिशत हो गयी. ऐसा चीन और भारत जैसे देशों की वजह से हो रहा है, जो तेज विकास कर रहे हैं. विशेषकर चीन का विकास तो आश्चर्यजनक रहा है.

इन देशों की विकास यात्रा ने इस सदी की रूप-रेखा के बारे में नये सिरे से विचार का मौका दिया है. ऐसा लगता है कि 2050 तक एक बिल्कुल अलग विश्व आर्थिक व्यवस्था बन चुकी होगी. आर्थिक सत्ता संतुलन एशिया की ओर खिसक रहा है. साम्यवाद की तरह थोपी गयी वाशिंगटन सर्वसम्मति की विचारधारा असफल होती दिख रही है. अब हमें नये ढंग से सोचना होगा. कई लोगों की राय है कि ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं को नयी व्यवस्था का आधार बनना चाहिए.

इसीलिए इनके शीर्ष नेता अक्सर मुलाकातें कर रहे हैं. पर ऐसा नहीं लगता है कि उनके पास कोई एजेंडा या योजना है. हित अक्सर टकरा जाते हैं. यदि अमेरिका अपने घाटे पर लगाम लगाने लगे, तो चीन को बहुत नुकसान हो जायेगा. साल 2009 की मंदी से वहां 2.20 करोड़ रोजगार खत्म हो गये थे. भारत का सकल घरेलू उत्पादन दो प्रतिशत कम हो गया था. रूस का तेल राजस्व बहुत अधिक घट गया था. फिर भी वैश्विक प्रणाली में सुधार लाने के लिए ये पांच देश आधार बन सकते हैं. जुआरी पूंजीवाद अब मार्गदर्शक विचारधारा नहीं हो सकती है. इसे जल्दी त्याग देना होगा और सबके लिए लाभकारी व्यवस्था अपनाना आज की आवश्यकता है. यह कींस के एक वैश्विक रिजर्व मुद्रा और उसे प्रबंधित करने की व्यवस्था स्थापित करने के सुझाव पर पुनर्विचार का समय है.

अमेरिका, और यूरो जोन भी, अपने एकाधिकार को नहीं छोड़ना चाहेंगे क्योंकि दुनिया का 91.4 फीसदी विदेशी मुद्रा भंडार उन्हीं की मुद्राओं में है. अकेले डॉलर की हिस्सेदारी ही 63.9 प्रतिशत है. दिलचस्प है कि अमेरिका का अपना मुद्रा भंडार मात्र 74 अरब डॉलर है, जबकि बाकी दुनिया ने 7910 अरब डॉलर रिजर्व रखा है. अकेले चीन का मुद्रा भंडार 4000 अरब डॉलर का है, जबकि रूस के पास 485 अरब डॉलर हैं. भारत इस मामले में 353 अरब डॉलर के साथ बहुत पीछे है, लेकिन यह राशि जर्मनी और फ्रांस के रिजर्व से दुगुना और ब्रिटेन से तीन गुना अधिक है. स्पष्ट रूप से अब समय आ गया है कि हम अपने धन का इस्तेमाल अपने लिए करें और बहुत अधिक वेतन पानेवाले वाल स्ट्रीट के पेशेवरों के जुआरी जैसे आकलनों पर बिल्कुल ध्यान न दें.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें