आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
न सिर्फ भारत में, और शायद किसी भी अन्य आधुनिक लोकतंत्र में नरेंद्र मोदी की तरह कोई दूसरा राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं है, जो सात सप्ताह तक विमुद्रीकरण के संकट वैसे झेल पाता, जैसा माेदी ने झेला है. उनके जन नेता होने का प्रमाण अगर किसी को देखना है, तो वह विमुद्रीकरण की इस पूरी अवधि के दौरान देखा जा सकता है. आइये, इस पर चर्चा करते हैं और इसे स्वीकार करते हैं, क्योंकि हम एक सही नेतृत्व के समक्ष उपस्थित हैं.
मेरे पास कुछ सुराग हैं, जिनसे पता चलता है कि सरकार मुद्रा विनिमय संकट का पूरी तरह से पूर्वानुमान लगाने में चूक गयी है. पहला संकेत मोदी की वह शुरुआती घोषणा है, जिसमें उन्होंने स्थिति के सामान्य होने को लेकर कुछ अनुमान जताये थे. वे अनुमान गलत साबित हुए.
दूसरा यह कि रुपये की किल्लत के कारण अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने का एहसास होने के बाद भी वे अपने तय कार्यक्रम के अनुसार जापान यात्रा पर गये. उनके जापान से लौटने के बाद यह स्पष्ट रूप से दिख रहा था कि पैसे निकालने के लिए बैंक और एटीएम के सामने लगी लोगों की कतारें बहुत जल्दी कम नहीं होनेवाली हैं. उनकी घोषणा इतनी दमदार थी कि उसने लोकप्रिय समझ को प्रभावित किया. मीडिया पूरी तरह उनके साथ था. वहीं इस कदम से अचंभित कांग्रेस ने भी इसके समर्थन की घोषणा कर डाली. ममता बनर्जी और केजरीवाल जैसे जमीनी नेताओं ने ही इस निर्णय से उत्पन्न होनेवाले संकट को महसूस किया और इसका विरोध किया.
मोदी आबादी के बड़े हिस्से को अपने साथ लाने में कामयाब रहे थे. इसमें वे लोग भी शामिल थे, जिन्होंने उनके पक्ष में मतदान नहीं किया था. उन्हें नोटबंदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी, इसलिए इससे होनेवाली परेशानियों को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया था. इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि मनमोहन सिंह सरकार ने अगर विमुद्रीकरण जैसा कदम उठाया होता, तो मीडिया या शहरी मध्य वर्ग में इसी तरह का उत्साह देखने को मिलता.
उस दौरान लोगों की प्रतिक्रिया आज के ठीक विपरीत होती- परेशानी होने से लोग उनसे नाराज हो जाते. इतना ही नहीं, अगर यह परेशानी आज की तरह सात सप्ताह तक बनी रह जाती, तो लोगों का गुस्सा चरम पर पहुंच जाता.
यह जानने के बाद कि यह परेशानी अभी महीनों रहनेवाली है, संभवत: इसे लेकर लोगों में क्रोध पनपने लगा है, लेकिन इतने समय मोदी ने इसे संभाले रखा है. यह एक उल्लेखनीय बात है.
उनकी प्रतिभा का दूसरा प्रदर्शन तब हुआ, जब वे बहुत जल्द इस बात को जान गये कि उनकी इस नीति का नकारात्मक प्रभाव उनके अनुमान से कहीं ज्यादा व्यापक था. जापान यात्रा से लौटने के तुरंत बाद उन्होंने दो भाषण दिये, जिनमें उन्होंने दो बातें कहीं. पहली बात उन्होंने भारतीयों से कही कि उन्होंने भलाई के लिए ऐसा किया और देश के भले के लिए ही उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का बलिदान दिया था. असामान्य रूप से उस भाषण में वे भावनात्मक हो गये, भाषण के दौरान उनकी आंखों में आंसू भी आयेे. यह वह पल रहा होगा, जब उन्हें यह एहसास हो गया कि यह मुद्दा उनके हाथों से निकल चुका है.
दूसरा, उन्होंने कहा कि 50 दिन के पहले यह स्थिति सामान्य नहीं होनेवाली है. इसके साथ ही एक तरह से उन्होंने इस रणनीति के पुनर्निरीक्षण के लिए जनता से समय मांग लिया. एक बार फिर उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में कर लिया और अपने तर्कों के द्वारा नोटबंदी से हो रही परेशानी का रुख दूसरी ओर मोड़ दिया.
अब मोदी चीजों के खुद-ब-खुद ठीक होने की प्रतीक्षा कर सकते थे, लेकिन इससे पहले कि विपक्ष कोई दबाव बना सके, उन्होंने स्वेच्छा से आगे आकर खुद एक समय सीमा तय कर दी. अपनी इस घोषणा से कि नोटबंदी से लोगों को 50 दिन तक परेशानी होगी, उन्होंने यह सोचने की छूट पा ली कि विमुद्रीकरण पर क्या किया जाना चाहिए. जैसा कि कुछ रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है कि उनके शुरुआती घोषणा में डिजिटल अर्थव्यवस्था की कहीं कोई बात नहीं थी. यह भाषण कालाधन, जाली नोट और आतंकवाद तक सीमित था.
यह मुद्दा उनके जापान से लौटने के बाद आया और उन भाषणों ने अचानक ही इस मुद्दे की दिशा बदल दी, और यह सब कुछ संभव हो सका मोदी की प्रतिभा और साख की बदौलत. उन्हें अकेले इस बारे में सोचते हुए कल्पना की जा सकती है. हालांकि विपक्ष ने यह आरोप लगाया कि मोदी ने ऐसा मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए किया था, लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि यह विश्वविद्यालय का वाद-विवाद नहीं है. जब तक मोदी आबादी के एक बड़े तबके को यह समझाने में सफल रहेंगे कि उनकी यह नीति अच्छी है और वर्तमान में हो रही यह परेशानी अंतत: लाभकारी साबित होगी, तब तक वह ऐसा करते रहेंगे. इस नीति से होनेवाले विशिष्ट लाभ राजनीति के लिए गैर महत्वपूर्ण हैं.
इस बात के प्रमाण तब सामने आये, जब विमुद्रीकरण के एक महीने बाद भी भाजपा देशभर में हुए चुनावों में जीती. इसमें पंजाब में होनेवाले चुनाव भी शामिल हैं, जहां भाजपा सत्ता में शामिल है और सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रही है.
इस समय मोदी के सामने कोई विपक्ष नहीं है और वे जो कुछ भी कहते हैं, उस पर उनकी पूरी पकड़ बनी हुई है. यह आश्चर्यचकित कर देनेवाली बात है, क्योंकि इस निर्णय से प्रत्येक भारतीय पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. बड़े पैमाने पर लोगों को हो रही परेशानी का लाभ कांग्रेस उठा सकती थी, उसके पास मौका भी था, लेकिन उसके पास इतनी क्षमता नहीं है.
बहुत से लोग सार्वजनिक तौर पर विमुद्रीकरण के विरोध में कुछ भी बोलने से हिचक रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि लोग उन्हें भला-बुरा कह सकते हैं. भारत में तो कोई ऐसा नहीं है, और पूरे लोकतांत्रिक राजनीति में गिने-चुने ही ऐसे नेता होंगे, जो वह सब हासिल कर सकें, जिसे मोदी ने आठ नवंबर के बाद हासिल किया है.
संभवत: यह दृश्य 2017 में बदल जाये, जब आठ नवंबर के बाद दूसरे वेतन चक्र में विमुद्रीकरण के मध्यम अवधि का प्रभाव दृष्टिगोचर हो. लेकिन, अभी यह मानना होगा कि मोदी जिस स्थान पर विराजमान हैं, वह महज अपने भाग्य की बदौलत नहीं, बल्कि अपनी उस प्रतिभा की वजह से, जिससे वे जनमत को अपनी ओर कर पाते हैं और उसे वैसा ही बनाये रखते हैं.
