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बीते दौर की बाढ़ की यादें

प्रभात रंजन कथाकार मैं परदेस में हूं और देस में बाढ़ आयी हुई है. पिछले साल सूखा पड़ा था. आज मेरे विस्थापित मन में बाढ़ और सूखा बस एक खबर बन कर रह गयी है. कभी-कभी मन में बचपन की बाढ़ कौंध जाती है. छूटे हुए देस की बहुत सारी यादों में बाढ़ की याद […]

प्रभात रंजन

कथाकार

मैं परदेस में हूं और देस में बाढ़ आयी हुई है. पिछले साल सूखा पड़ा था. आज मेरे विस्थापित मन में बाढ़ और सूखा बस एक खबर बन कर रह गयी है. कभी-कभी मन में बचपन की बाढ़ कौंध जाती है. छूटे हुए देस की बहुत सारी यादों में बाढ़ की याद भी शामिल है.

उस दौर की याद, जब बाढ़ टीवी की खबरों में देखने-सुनने को नहीं मिलती थी, बल्कि वह हमारे जीवन का हिस्सा होती थी. अब सोचता हूं, तो हंसी आती है कि हम स्कूल के दिनों में बाढ़ का इंतजार किया करते थे, क्योंकि बाढ़ आने पर स्कूल में पानी भर जाता था और महीने-डेढ़ महीने के लिए स्कूल में छुट्टी हो जाती थी. वे भी क्या दिन थे, जब हम बाढ़ की उस छुट्टी का बहुत शिद्दत से इंतजार किया करते थे.

मेरा छोटा-सा कस्बाई शहर सीतामढ़ी बाढ़ में आसपास के इलाकों से पूरी तरह कट जाता था.

उत्तर बिहार के सबसे बड़े शहर मुजफ्फरपुर जानेवाली सड़क पर मोटर-गाड़ियाें का चलना बंद हो जाता था और सड़कों पर मोटर-गाड़ियों की जगह नावें चला करती थीं. बाढ़ की याद से मेरे बचपन की सबसे भयावह याद जुड़ी हुई है. नाव से मुजफ्फरपुर जाते समय नाव पलट जाने से मेरे स्कूली दोस्त रश्मि राकेश की मौत हो गयी थी. दो दिनों तक हम उसकी लाश खोजते रह गये थे.

बाद में वह जिस रूप में मिली थी, उस रूप में दु:स्वप्न की तरह आज भी स्मृति में कभी-कभी कौंध जाती है उसकी आखिरी छवि.

खेतों में दूर-दूर तक फसलें नहीं, बल्कि पानी-ही-पानी दिखायी देता था. खाने के लिए सब्जियां खत्म हो जाती थीं और घर में रखा आलू और उस वक्त फला पपीता ही खाने के काम आता था. बाढ़ से हुए नुकसान के बारे में हम बाद में अखबारों में पढ़ते थे, लेकिन बाढ़ के उस गीले अनुभवों में हमारा जीवन डूबा रहता था. दिन-दिन भर मछली पकड़ने का अपना आनंद था.

खेतों में केकड़े और घोंघों के साथ-साथ कई बार सांप भी मिल जाया करते थे. एक साल बाढ़ का पानी इतना बढ़ गया था कि लगता था गांव डूब जायेगा. कई-कई रातें हमने इसी भय में जागते हुए काटी थीं कि घर में कहीं बाढ़ का पानी न घुस जाये. बाढ़ में घिरे हम लोग आपसी मेल-जोल, सहयोग के सहारे ही रहते थे. पूरे गांव में एक तरह का अपनापन-सा बन जाता था. सब एक-दूसरे की खोज-खबर में लगे रहते थे.

रोज तरह-तरह की अफवाहें उड़ा करती थीं कि नेपाल ने बागमती नदी में पानी छोड़ दिया है- सीतामढ़ी से लेकर आसपास के सारे शहर डूबनेवाले हैं. पूजा-पाठ का दौर चलता रहता था. ये सब कुछ आज याद करता हूं, तो यही याद आता है कि लाखों की आबादी किसी सरकार या प्रशासन की मदद के भरोसे नहीं, बालक भगवान के भरोसे जीने को मजबूर थी.

अब रोज टीवी पर बाढ़ में घिरे लोगों का वीडियो देख रहा हूं, नेताओं की बड़ी-बड़ी घोषणाएं सुन रहा हूं, प्रशासन के बड़े-बड़े दावे देख-सुन-पढ़ रहा हूं. लेकिन जमीन पर हालात कुछ खास नहीं बदले हैं. यही सोचता हूं कि आजादी के सत्तर सालों बाद भी बाढ़ में घिरे लोगों के जीवन में कुछ खास बदलाव नहीं आया है.

आज भी देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा प्रकृति के इस कोप का सामना आपसी मेल-जोल से करने के लिए विवश है. आज भी बाढ़ यही बताने के लिए आती है कि सूचना-संचार के तमाम विकास के बावजूद बाढ़ की आमद सरकारों और बाढ़ में घिरे लोगों के बीच अब भी वैसी ही दूरी है, जैसी सूचना-संचार माध्यमों के अभाव में थी. आज भी हमारी बहुत बड़ी आबादी प्रकृति के कोप का सामना अपने जीवट के बूते ही करती है.सरकारों के लिए बाढ़ उनके बड़े-बड़े दावों की परीक्षा लेने की तरह आती है, जिसमें सरकारें हर बार फेल हो जाती हैं!

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