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न्यायालय से जैसे-तैसे न्याय मिल भी जाये, सरकार से न्याय मिलना टेढ़ी खीर है़ सरकारी सेवा में जाने-अनजाने छोटी-मोटी भूल का होना अस्वाभाविक नहीं हैै़ ऐसी भूलों के लिए जितने जिम्मेवार कर्मचारी हैं, सरकारी कार्यसंस्कृति भी शायद उतनी ही जिम्मेवार है़ इन भूलों की कीमत कर्मचारियों को वर्षों की मानसिक प्रताड़ना और अस्पताल में आखिरी […]

न्यायालय से जैसे-तैसे न्याय मिल भी जाये, सरकार से न्याय मिलना टेढ़ी खीर है़ सरकारी सेवा में जाने-अनजाने छोटी-मोटी भूल का होना अस्वाभाविक नहीं हैै़ ऐसी भूलों के लिए जितने जिम्मेवार कर्मचारी हैं, सरकारी कार्यसंस्कृति भी शायद उतनी ही जिम्मेवार है़
इन भूलों की कीमत कर्मचारियों को वर्षों की मानसिक प्रताड़ना और अस्पताल में आखिरी सांस ले कर चुकानी पड़ती है़ न्यायालय द्वारा दोष मुक्त करार दिये गये कर्मचारी को दोष मुक्त सुनिश्चित करने में विभागों को वर्षों लग जाते हैं. बुजुर्गों का वक्त कुछ फैसलों को लागू कराने एवं रोके गये आर्थिक लाभ को हासिल करने में सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाते गुजर जाता है़
मगर न्याय, जिसका वह हकदार होता है, मिलना दूर, एक अंतहीन लड़ाई पीछे छोड़ खुद भी गुजर जाता है़ अनुशासनिक कार्रवाई के नाम पर विभागीय जांच में लगे 25 वर्ष और बुजुर्ग उम्मीदों की टिमटिमाती लौ को बुझा देने की सरकार की नीति समाप्त होनी चाहिए़
एमके मिश्रा, रातू, रांची

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