पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में पाकिस्तान के संदर्भ में बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के निर्मम उल्लंघन का जिक्र कर एक नयी बहस को छेड़ दिया है. कुछ लोग इस बात से हुलसे हैं कि आखिर पाकिस्तान को अपने दामन में झांकने के लिए ललकार कर मोदी ने उसे कश्मीर की केतली खौलाने की शरारत से परहेज की चेतावनी दे डाली है, तो खुद के ठंडे दिमाग पर फख्र करनेवाले विश्लेषकों को आशंका है कि यह राजनयिक पैंतरा जूए के खेल में उस दांव सरीखा है, जो उल्टा भी पड़ सकता है. वास्तव में दोनों ही पक्षों की टिप्पणी तर्क-संगत है.
भारत-पाक संबंधों में महीनों से गतिरोध जारी है. उभयपक्षी रिश्तों में कड़ुवाहट इस कदर बढ़ चुकी है कि इसकी बहुत कम संभावना है कि निकट भविष्य में शिखर वार्ता तो दूर की बात है, विदेश सचिव या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर पर भी वार्ता फिर से शुरू हो सकेगा. कश्मीर घाटी में राजनीतिक संकट गहराता जा रहा है. सवाल यह नहीं कि हालात बिगाड़ने के लिए कौन जिम्मेवार है.
हकीकत यह है कि शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने में राज्य सरकार बुरी तरह असफल है. विडंबना यह है कि भाजपा इस सरकार का हिस्सा है. स्थानीय भाजपाई नेताओं की महत्वाकांक्षा और पार्टी के शिखर नेतृत्व की उतावली का तो नतीजा यह है ही, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस भी अपनी जिम्मेवारी से हाथ नहीं झाड़ सकतीं.
एक महीने में लाखों छर्रों से अंधे और घायल होनेवाले नौजवानों की मातमपुरसी ने इन खबरों को भारत सरकार द्वारा मानवाधिकारों के बर्बर उल्लंघन का मसला बना दिया है. जाहिर है, पाकिस्तान को यह मौका मिला है कि वह इस बहाने कश्मीर विवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की साजिश रच सके. जो लोग अब तक इसे भारत का आंतरिक मामला मानते थे, वे अब मुखर होने को मजबूर हैं.
इनमें पूर्व कश्मीर नरेश डाॅक्टर कर्ण सिंह उल्लेखनीय हैं. मोदी जी की आलोचना लगातार इस असमर्थता के लिए होती रही है कि 56 इंच का सीना होने के बावजूद वे पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पा रहे हैं. अब तक सुलह की एकतरफा पेशकश और तमाम कोशिश के बाद मोदी जी के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे. पहले उन्होंने पाकिस्तान द्वारा हथियाये ‘आजाद कश्मीर’ को नाजायज कब्जे से खाली करा वापसी की मांग कर डाली. इतने भर को काफी न समझ कर अब बलूचिस्तान को उछालना उपयोगी समझा गया, ऐसा जान पड़ता है.
संकट यह है कि मानवाधिकारों का मसला दोधारी तलवार सरीखा है. हो सकता है कि इस आरोप की वजह से पाकिस्तान खुद को कटघरे में खड़ा महसूस करने लगेगा. अधिक संभावना इस बात की है कि वह खुद या चीन जैसे किसी मददगार के जरिये भारत को मानवाधिकारों के उल्लंघन के सिलसिले में गुनहगार करार देने लगे. यह भी संभव है कि जैसे भारतीय प्रधानमंत्री ने मुठभेड़ को कश्मीर तक सीमित न रख कर आगे बढ़ाने का फैसला किया है, वैसे ही पाकिस्तान भी भारत के पूर्वोत्तरी भाग में या अन्यत्र कहीं भी इसी राजनयिक हथियार को इस्तेमाल कर सकता है.
जब से केंद्र में एनडीए की सरकार बनी है, विदेश में ही नहीं स्वदेश में भी बढ़ती असहिष्णुता को लेकर चिंता जतायी जा रही है. हाल में एमनेस्टी के एक जलसे में शामिल अनेक पत्रकारों पर देशद्रोह के अभियोग ने इसी धारणा को पुष्ट किया है कि यह सरकार रत्ती भर असहमति बर्दाश्त नहीं करती. औपनिवेशिक कानून का सहारा लेकर अभिव्यक्ति की आजादी के बुनियादी अधिकार का हनन करने पर आमादा है. यहां यह महत्वपूर्ण नहीं कि असलियत क्या है- भारत सरकार की अंतरराष्ट्रीय छवि के धुंधलाने का जोखिम बड़ा है. पाकिस्तान अनायास इसका फायदा उठा सकता है.
मगर, यदि भारत विदेशी आलोचकों की ही चिंता करता रहेगा, तो निश्चय ही कभी अपने राष्ट्रहित निरापद नहीं रख सकता. अगर यह मान भी लें कि यह तुरूप का पत्ता नहीं सिर्फ धौंस की नुमाइश है, तब भी इसे बेकार नहीं कहा जा सकता. कम-से-कम इसकी शुरुआत तो हुई है कि पाकिस्तानी बयान की प्रतिक्रिया की जगह किसी भारतीय राजनयिक पहल ने ली है.
पाक-विषयक किसी भी नीति के बारे में आम सहमति असंभव है. खासकर उस चुनावी माहौल में, जहां अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंधमारी की लालच में हर दल पूर्वाग्रहग्रस्त पक्षधरता के दलदल से निकलने में असमर्थ है. न ही पाकिस्तान इस हालत में है कि वह भारत के साथ अपना स्थायी बैर-भाव तज कर कोई रचनात्मक साझेदारी की बात कर सके.
कुल मिला कर निकट भविष्य में ईंट का जवाब पत्थर से देनेवाली मुद्रा ही हमें देखने को मिलती रहेगी. बलूचिस्तान पाकिस्तान में शामिल ही नहीं होना चाहता था और शुरू से गुलामी का जूता उतार फेंकने को कसमसाता रहा है. लेकिन, भारत अब तक इसे पाकिस्तान का अंग मानता रहा है. अत: यह गुंजाइश कम है कि इस मुद्दे को देर तक निचोड़ा जा सकेगा!