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बंदे की समाज सेवा

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार बंदे को दारू छोड़े हुए छब्बीस साल हो गये हैं. लेकिन दारू छोड़ने की सजा उसे अब भी भुगतनी पड़ती है. हर पार्टी के बाद दो-चार टुन्न मित्रों को अपनी गाड़ी में ढो कर उनके घर छोड़ा किया. बंदे की भी अपनी मजबूरी होती है कि अगर ऐसा नहीं करूंगा, तो […]

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

बंदे को दारू छोड़े हुए छब्बीस साल हो गये हैं. लेकिन दारू छोड़ने की सजा उसे अब भी भुगतनी पड़ती है. हर पार्टी के बाद दो-चार टुन्न मित्रों को अपनी गाड़ी में ढो कर उनके घर छोड़ा किया. बंदे की भी अपनी मजबूरी होती है कि अगर ऐसा नहीं करूंगा, तो इसका नुकसान भी हो सकता है. टुन्न में से अगर कोई वाहन के नीचे आ गया, तो फिर क्या होगा? सिपाही ने चालान कर दिया, तो क्या होगा? सरकारी नौकरी हो, तो सस्पेंशन तो पक्का ही समझो. ऐसे में बंदा कभी खुद को माफ नहीं कर पायेगा.

दरअसल, सत्तर के दशक में ऐसा ही एक हादसा हो चुका था. इस नाते भी बंदा थोड़ा सतर्क रहता था. उस दिन शाम को ऑफिस बंद हुआ. उसको एक सहकर्मी मिल गया, बिलकुल फुलटॉस.

जिद करने लगा कि हमें घर छोड़ दो. बंदे ने सख्ती से मना कर दिया. और जैसे-तैसे पिंड छुड़ा कर वहां से भाग निकला. दूसरे दिन सुबह ऑफिस पहुंचा, तो पता चला कि वह सहकर्मी पिछली रात दारू के अड्डे पर ही बेहोश हुआ पड़ा था. उसे अस्पताल पहुंचाया गया और वहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. बंदे को बड़ा दुख हुआ.

उस दिन बंदा बहुत पछताया था कि अगर उसे घर छोड़ दिया होता, तो शायद यह ‘होनी’ टल गयी होती. उसी दिन बंदे ने कसम खायी थी कि अपने मित्रों को यों सड़क पर झूम-बराबर-झूम करने के लिए नहीं छोड़ेगा. दारूबाज मित्रों के लिए बंदा ही एकमात्र काबिले-ऐतबार प्राणी रह गया था. बंदे की इस समाज सेवा के दृष्टिगत कई मित्रों की पत्नियां यानी बंदे की भाभियां आश्वस्त रहती थीं कि भाई साहब साथ हैं ही, फिर भला चिंता की क्या बात है!

हां! तो बात हो रही थी टुन्न मित्रों के ढोने की. हुआ यह कि एक प्रीतिभोज में बंदे के मित्रों ने जम कर दारू पी. वापसी पर तीन को लादना पड़ा. मेजबान ने भी रिक्वेस्ट की. मित्रता और फिर मानवीय दृष्टिकोण का मारा बंदा बेचारा. उसने कहा नो प्रॉब्लम. रास्ते में एक टुन्न मित्र कार ड्राइव करने की जिद करने लगा. बड़ी मुश्किल से उसे पीछे की डिक्की में डंप करके बंदे ने गाड़ी आगे बढ़ायी. इस तरह से तमाम मशक्कतों के बाद बंदे ने बमुश्किल एक-एक करके उन सबको उनके घर छोड़ा.

तीसरे साहब ज्यादा ही टुन्न थे. उनकी पत्नी घबरा-सी गयीं- भाई साहब, प्लीज इन्हें हॉस्पिटल पहुंचा दें. फिर क्या! वही मानवीय दृष्टिकोण और बंदा मजबूर. इसी कारण रात काफी देर हो गयी. घड़ी देखी- हे भगवान, ढाई बज गया है! इस बीच बंदे को ध्यान ही नहीं रहा कि घर पर भी फोन करके बताना है कि किस कारण विलंब हो रहा है. इतनी रात कहीं पीसीओ भी खुला नहीं दिखा.

बहरहाल, जब बंदा घर पहुंचा, तो देखा कि वहां कोहराम मचा हुआ है. बंदे का दिल धड़क उठा. उसके मन में विचार आया कि कोई अनहोनी हो गयी है क्या? ढेर सारे अड़ोसी-पड़ोसी जमा थे वहां. बंदे को देख कर सब हैरान हुए और बंदा भी उन्हें देख कर कुछ हैरान हुआ.

माजरा पता चला कि जब बंदा डेढ़ बजे तक घर नहीं पहुंचा, तो चिंतित पत्नी ने पड़ोसी से मदद मांगी और अति उत्साहित पड़ोसी ने पड़ोसी धर्म का निर्वाह करते हुए थाने में जाकर बंदे की गुमशुदगी की सूचना भी लिखवा दी. घंटे भर में पुलिस तफ्तीश भी कर गयी.

लेकिन पिक्चर अभी खत्म नहीं हुई. थोड़ी ही देर में दो सिपाही आये, यह बताने के लिए कि थाने पर एक डेड बॉडी आयी है, चल कर शिनाख्त कर लें. बंदे ने लाख समझाया कि जिस बंदे की तलाश थी, वह लौट आया है. लेकिन सिपाही नहीं माने- वह तो ठीक है, पहले शिनाख्त करके बताओ कि यह तुम्हारी डेड बॉडी नहीं है.

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