कोई दुर्घटना एक बार हो तो चूक कहलाती है, दो बार हो तो गलती, पर बार-बार हो तो उसे आत्मघाती लापरवाही के सिवा और क्या कहा जाये? चूक को भुला दिया जाता है यह सोच कर कि अब से चौकस रहेंगे. गलती करनेवाले को सजा का हकदार माना जाता है, ताकि सबक लिया जा सके और गलती दोहरायी न जाये. लेकिन लापरवाही तो लाइलाज जान पड़ती है. यह हमारी व्यवस्था के भीतर बसी लापरवाही का ही संकेत है कि दुर्घटनाएं अपनी विनाशलीला से उसे बार-बार जगाती हैं, लेकिन व्यवस्था थोड़े समय के लिए सक्रिय होकर फिर कुंभकर्णी नींद में चली जाती है. नागपुर के नजदीक पुलगांव में देश के सबसे बड़े आयुध डिपो में लगी भीषण आग हमारी व्यवस्था में पैठी खामियों की ही एक नजीर है.
सैन्य जीवन अनुशासित जीवन का सर्वोच्च रूप माना जाता है, जहां गलती और लापरवाही तो छोड़ दें, हल्की सी चूक के लिए भी जगह नहीं छोड़ी जा सकती. सैन्य-जीवन से जुड़े किसी भी प्रसंग में हल्की सी भी चूक का अर्थ देश की बाहरी सुरक्षा और आंतरिक शांति को दावं पर लगाना या फिर किसी विनाशलीला को न्यौता देना माना जाता है. पुलगांव में यही हुआ. सिर्फ करोड़ों रुपये के कीमती आयुध ही आग की भेंट नहीं चढ़े, सेना के अनेक जवानों और अधिकारियों ने अपना अमूल्य जीवन गंवाया और आसपास के गांवों में रहनेवाले हजारों लोगों का जीवन असुरक्षा के साये में आ गया.
यह हादसा जितना त्रासद है, तकरीबन उतना ही विचित्र तथ्य यह भी है कि हमारे देश में सेना के आयुध डिपो में आग कोई पहली बार नहीं लगी है. साल-दो-साल के अरसे पर यह दुर्घटना अपने को दोहराती रही है और हर बार आयुध डिपो की फैलती आग के आगे हमारी तैयारियां लचर और लाचार नजर आती हैं.
याद कीजिए सन् 2000 की दुर्घटना, जब भरतपुर के आयुध डिपो में भीषण आग लगी थी. तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीस ने देश की संसद को बताया था कि 30 हजार टन सैन्य-आयुधों वाले डिपो में 28 अप्रैल, 2000 को दिन के साढ़े तीन बजे आग लगी और अगले दिन आधी रात तक इस पर काबू नहीं पाया जा सका. पौने चार सौ करोड़ के आयुध देखते-देखते स्वाहा हो गये. भयावह विस्फोट की आवाजों के बीच आसपास के हजारों ग्रामीणों को अपना घर छोड़ कर सुरक्षित जगहों पर शरण लेनी पड़ी थी.
इसे लेकर चतुर्दिक चिंता और चर्चा के बीच तत्कालीन केंद्र सरकार ने तय किया था कि एक मेजर जनरल की अगुवाई में कोर्ट ऑफ इन्क्वाॅयरी बैठेगी. हालांकि सेना के बारे में बहुत कम जानकारियां सार्वजनिक होती हैं, लेकिन उस वक्त संसद में रक्षामंत्री ने जो बयान दिया था, उसके सहारे देश ने जाना कि हर आयुध डिपो का अपना एक विशेष सुरक्षा तंत्र और अग्निशमन से संबंधित विशेष इंतजाम होता है.
सरकार आयुध डिपो की सुरक्षा के इंतजाम पर हर साल करीब सवा सौ करोड़ रुपये खर्च कर रही है और हर आयुध डिपो को अग्नि-निरोध के बारे मेंनियमित अंतराल पर व्यापक निर्देश दिये जाते हैं. ऐसे इंतजामों के बावजूद आयुध डिपो में आग का लगना कभी रुका नहीं.
मिसाल के लिए, 2007 में कश्मीर के खुंडरु स्थित 21 फील्ड एम्युनिशन डिपो में आग लगी. तब 18 लोगों ने जान गंवायी, दसियों घायल हुए और 13 गांवों की 26 हजार आबादी प्रभावित हुई. इस डिपो में 2005 में भी आग लगी थी. फिर 2010 में देश के बड़े आयुध भंडारों में शुमार पानागढ़ के आयुध डिपो में आग लगी. कोई हताहत नहीं हुआ, लेकिन भयावह विस्फोटों के बीच नागरिक जीवन को असुरक्षा पैदा हुई.
ऐसे में यह सवाल तो उठेगा ही कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के दावों के बावजूद आयुध डिपो में आग कैसे लग जाती है? इसमें दोष किसका और जवाबदेही किसकी है? ऐसे महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों में जो एलर्ट और सिक्योरिटी सिस्टम लगाये जाते हैं, उनकी नियमित जांच क्यों नहीं होती? दुर्घटना के बाद ही इन इंतजामों की खामियां क्यों सामने आती हैं? ये प्रश्न देश के नीति नियंताओं से जवाब की मांग करते हैं, क्योंकि आयुध डिपो में लगनेवाली आग, कहीं और होनेवाली अगलगी की घटनाओं से बुनियादी अर्थों में काफी अलग है.
यह मामला कीमती आयुधों के नष्ट होने, जवानों के जान गंवाने और आसपास के नागरिकों की जिंदगी पर संकट भर का नहीं है. सैन्य सुरक्षा से जुड़ी नौकरशाही के अतिरिक्त कोई नहीं जानता कि किसी आयुध डिपो में किस प्रकृति और मारक क्षमता के हथियार रखे हैं. जिन हथियारों की संहारक क्षमता बहुत ज्यादा है, अगर आयुध डिपो की आग में उन्हीं में विस्फोट होने लगे, तो फिर जान-माल को व्यापक नुकसान की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. इतना ही नहीं, आयुध डिपो की आग देश के दुश्मनों की शत्रुतापूर्ण कारगुजारियों का एक हिस्सा भी हो सकती है. ऐसी स्थिति में मामला अंदरूनी सुरक्षा-व्यवस्था में भारी खामी का बनता है.
इन दो वजहों से आयुध डिपो की सुरक्षा के इंतजामों को चाक-चौबंद करने की फौरी जरूरत है. आयुध डिपो में बार-बार लगती आग के मामले में देश अब तक ‘हमने देखा, हम देख रहे हैं और हम देखेंगे’ के भावभंग में ही चलता रहा है. यह भाव-भंगिमा नहीं बदलेगी, तो और बड़े हादसे अवश्यंभावी हैं.
