चुनाव में जनता को रिझानेवाले वादे करने की परिपाटी कोई नयी बात नहीं है. लेकिन हालिया चुनाव में तमिलनाडु में ऐसी स्थिति आ गयी कि चुनाव आयोग को अन्ना द्रमुक और द्रमुक को कारण बताओ नोटिस तक जारी करना पड़ा. इससे पहले कभी भी आयोग ने किसी दल के घोषणा-पत्र में किये गये वादों पर दिशा-निर्देशों के उल्लंघन का आरोप नहीं लगाया था.
दोनों दलों ने सस्ते चावल और खाद्य अनुदान के साथ मोबाइल, बिजली, साइकिल और दो चक्के के वाहनों पर भारी छूट और कर्ज माफी का वादा किया था. तेलंगाना सरकार भी इसी राह पर चल रही है. एक दौर था, जब आम तौर पर उत्तर भारतीय नेताओं पर लोक-लुभावन वादे कर मतदाताओं को रिझाने का आरोप लगाया जाता था और दक्षिण भारत की राजनीति को विकास और सामाजिक न्याय की ओर उन्मुख बताया जाता था.
लेकिन, अब उत्तर और पूर्वी भारत में नेताओं का जोर विकास, सुशासन और सामाजिक सशक्तीकरण पर अधिक है. पिछले साल बिहार के चुनाव में सस्ते दर पर या मुफ्त में चीजें देने के वादे बहस में नहीं थे. चर्चा राजनीति और शासन के मुद्दों पर आधारित थी. दिल्ली में बिजली-पानी की दरें कम करने के दावे जरूर किये गये थे, पर मुख्य मुद्दे पूर्ववर्ती सरकार का कामकाज और विभिन्न दलों के कार्यक्रमों से ही जुड़े थे.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि वह आगामी चुनाव अपने काम और विकास के एजेंडे पर लड़ेंगे. जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में भी बीते चुनाव में रोजगार और निवेश बढ़ाने के मुद्दे प्रमुख थे. लड़कियों को साइकिल देने या पढ़ रहीं अविवाहित महिलाओं को आर्थिक मदद देने जैसी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कई योजनाओं को लोक-लुभावन श्रेणी में रखना ठीक नहीं होगा, क्योंकि ये वंचित वर्गों के उत्थान के उपाय हैं.
इसी तरह से गरीबों को सस्ता राशन मुहैया कराना भी ठीक है. लेकिन निरंतर विकास और समृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए बेहतर शासन और नीतियों की आवश्यकता होती है और यही सरकार का उत्तरदायित्व है. जरूरतमंद को राहत पहुंचाना एक बात है और मुफ्त में चीजें देकर चुनाव जीतने की जुगत लगाना बिल्कुल अलग बात है.