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विचार और एजेंडे के बगैर कांग्रेस

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार पांच राज्यों के चुनाव में पुद्दुचेरी की जीत कांग्रेस के लिए सांत्वना पुरस्कार की तरह है. प्रमुख राज्यों में उसकी लुटिया डूब गयी. केरल और असम में वह वापसी संभव नहीं कर सकी. बंगाल में वाममोर्चे से उसकी आधी-अधूरी रिश्तेदारी किसी काम नहीं आयी. तमिलनाडु में जोर लगाने के बावजूद द्रमुक की […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
पांच राज्यों के चुनाव में पुद्दुचेरी की जीत कांग्रेस के लिए सांत्वना पुरस्कार की तरह है. प्रमुख राज्यों में उसकी लुटिया डूब गयी. केरल और असम में वह वापसी संभव नहीं कर सकी. बंगाल में वाममोर्चे से उसकी आधी-अधूरी रिश्तेदारी किसी काम नहीं आयी. तमिलनाडु में जोर लगाने के बावजूद द्रमुक की अगुवाई में वह ज्यादा कुछ नहीं हासिल कर सकी.
इनमें उसकी सबसे बड़ी हार असम की है, जहां भाजपा ने उससे सत्ता छीनी है. क्षेत्रीय स्तर पर तरुण गोगोई के भरोसेमंद नेतृत्व के बावजूद वह ‘एंटी-इनकम्बैंसी’ को मात नहीं दे सकी. गोगोई ने भी माना है कि लोग बदलाव चाहते थे. लेकिन, बंगाल और तमिलनाडु की दो महिला नेताओं ने अपने यहां बदलाव की लहर नहीं पैदा होने दी. दोनों क्यों कामयाब रहीं और असम और केरल में कांग्रेस क्यों विफल हो गयी?
चुनाव नतीजों से यह साफ हो गया कि बंगाल में ममता बनर्जी का जादू कायम है. हाल के दिनों में उनकी शख्सियत और सरकार पर में जितने सवाल उठे, वे जनता के बीच असर नहीं बना सके. सवाल सियासी ज्यादा थे, सामाजिक कम. उनकी टक्कर का माकपा या कांग्रेस में कोई नेता भी नहीं था. आजकल लोग पार्टी ही नहीं, नेता भी देखते हैं.
बंगाल में माकपा ज्योति बसु के निधन और बुजुर्ग हो चले बुद्धदेव भट्टाचार्य के निष्क्रियता के बाद नेतृत्वविहीन सी हो गयी है. पार्टी के नये नेता ममता की लोकप्रियता के आगे कहीं नहीं टिकते. बीते पांच सालों में माकपा या वाममोर्चे ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे लोग लाल झंडे से फिर जुड़ते. ऐसे में बंगाल का वाम-कांग्रेस आधा-अधूरा समझौता शुरू से ही पराजयबोध से ग्रस्त था. समझौते ने अपने लिये कोई न्यूनतम निर्धारित कार्यक्रम भी तय नहीं किया.
केरल में वाममोर्चे की सत्ता में वापसी राज्य के सियासी मिजाज के हिसाब से स्वाभाविक परिघटना है. वहां आमतौर पर वाममोर्चा और कांग्रेसनीत यूडीएफ हर पांच साल बाद सत्ता में लौटते रहे हैं. इस बार भाजपा ने भी यहां पूरी ताकत लगायी. सरकार बनाने के लिए नहीं, राज्य में अपना खाता खोलने के लिए. आरएसएस-भाजपा का एक बड़ा सपना पूरा हुआ.
दोनों संगठन अपने तईं केरल में बरसों से लगे हुए थे. बीते दो दशकों से कन्नूर और त्रिशूर जैसे जिलों में दोनों संगठन सक्रिय हैं. कन्नूर में माकपा और आरएसएस के खूनी टकराव में कई लोग मारे जा चुके हैं. इस बार प्रधानमंत्री मोदी केरल में गहरी रुचि ले रहे थे. चुनाव की घोषणा से काफी पहले उन्होंने केरल के दौरे शुरू कर दिये थे. सबसे पहले वह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सक्रिय रहे पिछड़े वर्गों के महान समाज-सुधारक नेता नारायण गुरु के आश्रम गये. इड़वा समुदाय के बीच समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने बीडीजेएस से गंठबंधन का फैसला किया. केरल में भाजपा अपने वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री ओ राजगोपाल के जरिये पहली बार राज्य विधानसभा में दाखिल हुई है. उसे मात्र एक सीट मिली है.
लेकिन तमिलनाडु ने भाजपा को बुरी तरह खारिज कर दिया. लोकसभा चुनाव के अपने प्रदर्शन से वह खासा उत्साहित थी, पर विधानसभा में तमिल जनता ने बता दिया कि वह द्रमुक-अन्नाद्रमुक से चाहे जितना निराश हो, फिलहाल द्रविड़ राजनीति से बाहर किसी को स्वीकार नहीं करेगी.
चुनाव के शुरुआती चरण में ही यह बात साफ हो गयी थी, जब भाजपा के साथ गंठबंधन करने को छोटा-बड़ा, कोई द्रविड़ गुट तैयार नहीं हुआ. जनकल्याणकारी कामों के लिए राज्य की सभी पार्टियों के बीच प्रतिस्पर्धा छिड़ी रहती है. ऐसे में अन्नाद्रमुक अपनी अम्मा थाली, अम्मा कैंटीन, अम्मा फार्मेसी के जरिये फिर कामयाब रही. हालांकि, इस बार सत्ताधारी अन्नाद्रमुक विपक्षी द्रमुक के बीच सीटों के हिसाब से पहले जैसा अंतर नहीं होगा. लेकिन, जयललिता ने लगभग 30 साल का रिकॉर्ड तोड़ा है. सत्ताधारी पार्टी दोबारा सत्ता में वापस आयी है.
भाजपा के लिए दिल्ली और बिहार विधानसभा के नतीजे बेहद निराशाजनक थे. लेकिन असम में कामयाबी और केरल में खाता खोलने से इस बार उसके हौसले बुलंद हैं. बंगाल में अपनी सीमित और शुरुआती सफलता को वह भविष्य के लिए शुभ संकेत मान सकती है.
कांग्रेस के लिए सब कुछ निराशाजनक नजर आ रहा है. कांग्रेस को भविष्य में धमाकेदार वापसी करनी है, तो नेतृत्व को रणनीति और कार्यनीति पर आत्ममंथन करना होगा. उसकी बुनियादी समस्या विचार की है. फिलहाल कांग्रेस विचार, एजेंडे और सपने के स्तर पर दरिद्र दिख रही है.

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