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इच्छामृत्यु पर पहल
लाइलाज बीमारियों की यंत्रणा भुगत रहे मरीजों के लिए इच्छामृत्यु चुनने के अधिकार को लेकर दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह भारत में भी लंबे समय से बहस चल रही है. इस बहस में एक निर्णायक हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार ने ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ को वैधता देने के लिए एक विधेयक का प्रारूप तैयार किया […]
लाइलाज बीमारियों की यंत्रणा भुगत रहे मरीजों के लिए इच्छामृत्यु चुनने के अधिकार को लेकर दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह भारत में भी लंबे समय से बहस चल रही है. इस बहस में एक निर्णायक हस्तक्षेप करते हुए केंद्र सरकार ने ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ को वैधता देने के लिए एक विधेयक का प्रारूप तैयार किया है.
इस तरह की इच्छामृत्यु में मरीज, निकट संबंधियों या चिकित्सक के परामर्श पर मरीज की जीवन रक्षक चिकित्सा रोक दी जाती है और उसके जीवन-मृत्यु को प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया जाता है. स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रस्ताव में सक्रिय इच्छामृत्यु पर प्रतिबंध को बहाल रखा गया है, जिसमें मरीज, नजदीकी रिश्तेदारों और चिकित्सकों की सलाह पर जहरीली दवा दी जाती है.
ऐसा कानून बनाने का सुझाव विधि आयोग ने 2006 में दिया था, पर स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसे नहीं माना था. वर्ष 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति देते हुए इसके लिए समुचित प्रक्रिया का निर्धारण कर महत्वपूर्ण कदम उठाया था. विधि आयोग ने 2012 में फिर से अपने सुझाव सरकार को दिये थे. वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 के अपने फैसले को ‘असंगत’ बताते हुए इस मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया था.
फिलहाल यह मामला विचाराधीन है. प्रस्तावित विधेयक में मरीज, संबंधियों एवं चिकित्सकों को कानूनी संरक्षण देते हुए निष्क्रिय इच्छामृत्यु के आवेदन पर अंतिम निर्णय का अधिकार उच्च न्यायालय को दिया गया है. इसमें मरीज के दर्द को नियंत्रित करने के उपायों को जारी रखने की मंजूरी भी दी गयी है. सक्रिय इच्छामृत्यु के दुरुपयोग की आशंका को देखते हुए उसे प्रतिबंधित रखने का प्रस्ताव सराहनीय है.
सरकार ने 19 जून तक लोगों से इस प्रस्ताव पर अपनी राय देने को कहा है. लाइलाज बीमारियों से जूझ रहा मरीज भयानक तकलीफों से गुजरता है. इस दौरान उसके निकट संबंधी भी भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक संकट से जूझते हैं. आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के लिए ऐसी स्थितियां और भी त्रासद हो जाती हैं. इस पृष्ठभूमि में ऐसे कानूनी प्रावधान की जरूरत है. बहरहाल, एक ओर सम्मान से जीने और सम्मान से मरने के अधिकार का तर्क है, तो दूसरी ओर किसी बीमार को आंखों के सामने मरते देखने के नैतिक, पेशेवर और भावनात्मक संकट के प्रश्न भी हैं.
कानून के संभावित दुरुपयोग की आशंकाएं भी हैं. ऐसे में जीवन-मरण के मसले पर अतिशय गंभीरता और गहन सोच-विचार जरूरी है. उम्मीद है कि सरकार प्रस्तावित विधेयक पर आये सुझावों पर व्यापक विचार-मंथन के बाद ही इसे अंतिम रूप देगी.
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