डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
आगामी बजट में वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती सातवें वेतन आयोग के पड़नेवाले भार को वहन करते हुए अर्थव्यवस्था को गति देने की है. आयोग द्वारा सरकारी कर्मियों के वेतन में लगभग 23 प्रतिशत की वृद्धि की संस्तुति की गयी है.
फलस्वरूप केंद्र सरकार के बजट पर लगभग एक लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ने को है. वर्ष 2014-2015 में केंद्र सरकार के कुल खर्च लगभग 18 लाख करोड़ रुपये थे. इन खर्च में पांच प्रतिशत की वृद्धि केवल सरकारी कर्मियों के बढ़े हुए वेतन देने के कारण होगी. ऐसे में सरकार के द्वारा अन्य खर्चों यथा मनरेगा, बुलेट ट्रेन आदि पर खर्च बढ़ाने में कठिनाई आयेगी. सरकार के सामने कठिन च्वॉयस है. सरकारी कर्मियों तथा जनहित कार्यक्रमों में से किसी एक को चुनना है. इसका हल बजट की आंकड़ेबाजी से नहीं हो सकता है. जरूरी है कि सरकारी कर्मियों की मूल भूमिका पर पुनर्विचार किया जाये.
सातवें वेतन आयोग के टर्म्स आॅफ रिफरेंस में कहा गया था कि वेतनमान इस तरह से निर्धारित किये जायें कि कर्मियों में कार्यकुशलता, जवाबदेही एवं जिम्मेवारी स्थापित हो. लेकिन सरकारी कर्मियों का मूल चरित्र इस उद्देश्य से मेल नहीं खाता है. किसी पशुपालक ने घोड़ा पाला कि गाय का झुंड इधर-उधर खो जाये, तो घोड़े पर सवारी करके उसे वापस लाया जा सके. लेकिन, गाय के चारे में कटौती करके घोड़े को गुड़ खिलाने से मूल उद्देश्य ही पलट जाता है.
गाय ही मर गयी, तो घोड़ा किस काम का? सरकारी कर्मियों को आम जनता के पोषण और रक्षण के लिए नियुक्त किया जाता है. आम जनता का पेट काट कर सरकारी कर्मियों का पेट भरने और जनता को सुख देने का मूल उद्देश्य ही निरस्त हो जाता है.
विश्व बैंक के अध्ययन में 1990 के दशक में विभिन्न देशों के सरकारी कर्मियों के वेतन की तुलना उन्हीं देशों की जनता की औसत आमदनी से की गयी. पाया गया कि इंडोनेशिया में सरकारी कर्मियों तथा नागरिकों की औसत आय का अनुपात 1.0 था, चीन में 1.2, अमेरिका में 1.4, कोरिया में 1.5, अर्जेंटीना में 1.9 था. भारत में यह अनुपात 4.8 पर सर्वाधिक था. यानी जनता पर टैक्स लगा कर सरकारी कर्मियों को बढ़े वेतन देने में हम पूर्व में ही अव्वल थे. छठे एवं अब सातवें वेतन आयोग द्वारा दी गयी वेतन वृद्धि के बाद यह प्रक्रिया और गहरी हो गयी है.
वेतन आयोग ने संस्तुति दी है कि कर्मी को आरामदेह जीवन देने के लिए पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिए. तो क्या रिक्शेवाले को आरामदेह जीवन जीने का हक नहीं है? 5,000 रुपये प्रति माह कमानेवाले रिक्शेवाले पर टैक्स लगा कर 30,000 रुपये कमानेवाले सरकारी कर्मी का वेतन बढ़ाने का क्या अर्थ है?
असल में वेतन आयोग का गठन ही अनैतिक तरीके से हुआ है. आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त जज थे, एक सदस्य सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी थे और तीसरे सरकारी प्रोफेसर. आयोग द्वारा दी गयी संस्तुतियों में तीनों सदस्य लाभान्वित होते हैं.
आयोग ने 23 प्रतिशत वेतन वृद्धि की संस्तुति इस आधार पर की है कि छठे वेतन आयोग की तुलना में सातवें वेतन आयोग का सरकारी राजस्व पर कम भार पड़ेगा.
छठे वेतन आयोग के कारण सरकार के राजस्व खर्चे में 4.32 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जो सातवें वेतन आयोग में केवल 4.25 प्रतिशत रहेगी. सातवें वेतन आयोग को सरकारी कर्मियों की वेतन वृद्धि का अर्थव्यवस्था और आम आदमी पर प्रभाव पर विचार करना था. यदि छठे वेतन आयोग ने इस मद पर कोई गलती कर दी थी, तो उसे सुधारने की जरूरत थी न कि उसकी आड़ में गलती दोहराने की.
सरकार को सातवें वेतन आयोग को लागू करने पर सावधानी से विचार करना चाहिए. विषय सरकारी कर्मियों को उपयुक्त वेतन देने मात्र का नहीं, बल्कि जनता को राहत पहुंचाने का है. देश को आगे बढ़ाना है, तो जनता पर सरकारी कर्मियों के भार को कम करना होगा.
यह देश दो करोड़ सरकारी कर्मियों मात्र का नहीं है. यह देश 128 करोड़ गैरसरकारी कर्मियों का पहले और उनकी सेवा को नियुक्त हुए 2 करोड़ सरकारी कर्मियों का बाद में है. वेतन आयोग के तीनों सदस्य सरकारी कर्मी अथवा वेतन भोगी थे. सरकारी कर्मियों की वेतन वृद्धि से ये स्वयं लाभान्वित होते हैं. अतः इनसे आम आदमी या राष्ट्रहित की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. अब सरकार ने सचिवों की कमेटी बनायी है.
ये भी दी गयी संस्तुतियों से लाभान्वित होंगे. सरकार को चाहिए कि इस कमेटी में कम-से-कम चार गैरसरकारी व्यक्तियों को नियुक्त करे, जैसे बार एसोसिएशन, आइसीए, कांफेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्री तथा इंडियन इकाेनॉमिक एसोसिएशन के अध्यक्षों को कमेटी में शामिल किया जा सकता है. तभी देश और जनहित को देखते हुए निर्णय लिया जा सकता है.