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”आत्महत्या के विरुद्ध” 2016

रोहित का पत्र प्रत्येक सुशिक्षित भारतीय को सोचने को विवश करता है कि क्या आदमी मात्र आंकड़ा है? जहां स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व न हो, वहां बच जाती है केवल मृत्यु, केवल आत्महत्या. आत्महत्या का संबंध असहिष्णुता, भय, आतंक और असुरक्षा आदि से उत्पन्न उस अकेलेपन से है, जिसका एक सामाजिक संदर्भ है. आत्महत्या अपने […]

रोहित का पत्र प्रत्येक सुशिक्षित भारतीय को सोचने को विवश करता है कि क्या आदमी मात्र आंकड़ा है? जहां स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व न हो, वहां बच जाती है केवल मृत्यु, केवल आत्महत्या.
आत्महत्या का संबंध असहिष्णुता, भय, आतंक और असुरक्षा आदि से उत्पन्न उस अकेलेपन से है, जिसका एक सामाजिक संदर्भ है. आत्महत्या अपने व्यापक अर्थ में हत्या है. आत्महत्या को मनोविज्ञान से जोड़ कर अधिक देखा जाता रहा है, जबकि इसका एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य है. रघुवीर सहाय ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ (मई 1967 की ‘कल्पना’ में प्रकाशित) में ‘जनता की छाती’ पर चढ़े ‘मंत्री मुसद्दीलाल’ का एक चित्र खींचा है.

लगभग साठ वर्ष में मंत्री मुसद्दीलाल का चेहरा, रूप-रंग, वस्त्र सबकुछ बदल चुका है. आज के अनेक मंत्री मुसद्दीलाल के आधुनिक उत्तर आधुनिक संस्करण हैं. रघुवीर सहाय ने अपनी इस कविता में मंत्री मुसद्दीलाल के साथ अध्यापक, विद्यार्थी, कुलपति, उपकुलपति सबकी ओर हमारा ध्यान दिलाया था. 17 जनवरी, 2016 को रोहित चक्रवर्ती वेमुला की आत्महत्या के बाद रघुवीर सहाय की यह कविता याद आती है. रघुवीर सहाय ने इस कविता में ‘हर दिन मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द’ के साथ छटपटाहट यह लिखा- ‘मरते मनुष्य के बारे में क्या करूं, क्या करूं क्या करूं मरते मनुष्य का’ उसी समय उन्होंने अध्यापकों (प्रोफेसरों) को यह सोचने को कहा था- ‘अध्यापक याद करो किसके आदमी हो तुम‍/ याद करो विद्यार्थी तुम्हें आदमी से/ एक दर्जा नीचे/ किसका आदमी बनना है?’ खिसियाते कुलपति और घिघियाते उपकुलपति को 1967 में ही रघुवीर सहाय ने देख लिया था.

भारतीय लोकतंत्र का चित्र-चरित्र आज जिस रूप में है और जिन शक्तियों ने अपने लाभार्थ उसे विकृत किया है, उसे समझना आज कठिन नहीं है. 1985 में रघुवीर सहाय ने एक दूसरी कविता लिखी ‘आत्महत्या के विरुद्ध-85’- कर्महीन लोकतंत्र की मदद करता है विध्वंसक लोकतंत्र/ दोनों मिल कर विचारधारा चलाते हैं. आज जो संघी विचारधारा दनदना रही है, उसमें स्थितियां कहीं अधिक बदतर हो रही हैं. यह समझना और समझाना सरासर गलत है कि रोहित ने आत्महत्या गहरी उदासी में की. यह आत्महत्या पक्षपात और भेदभाव की स्थितियों से जुड़ी है. उच्च शिक्षण संस्थाओं में दलितों के साथ यह भेदभाव अब और अधिक बढ़ रहा है. हैदराबाद विवि में, जहां रोहित पीएचडी कर रहा था, आठ वर्ष में ग्यारह दलित छात्रों ने आत्महत्या की. दिल्ली, मुंबई, मद्रास और हैदराबाद के विश्वविद्यालयों में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं. आइआइटी, एम्स, आइआइएससी के साथ कई मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दलितों के साथ घटी घटनाओं को शिक्षण-संस्थाओं के साथ व्यवस्था पर एक धब्बा ही माना जा सकता है. 2002 में हैदराबाद विवि से दस दलित छात्र निष्कासित किये गये थे. छात्रों को निकालने में उस समय जिस चीफ वॉर्डन की बड़ी भूमिका थी, वे वहां के कुलपति बने. भारतीय विश्वविद्यालय कैलिफोर्निया और िशकागो विश्वविद्यालय से कभी कुछ नहीं सीख सकते. प्रसिद्ध खगोलज्ञ और वैज्ञानिक कार्ल एडवर्ड सागान रोहित के आदर्श थे. दुनिया के नाम लिखे अपने पत्र में रोहित ने अपनी इच्छा व्यक्त की- ‘मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था, विज्ञान पर लिखनेवाले कार्ल सागान की तरह.’ महाराष्ट्र अंधविश्वास विरोधी फोरम के संस्थापक तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर, भाकपा नेता और ‘हू वॉज शिवाजी’ के लेखक गोविंद पानसारे और लेखक व बुद्धिजीवी एमएम कलबुर्गी की हत्या से स्पष्ट है कि देश में तार्किकी और वैज्ञानिक चेतना के विकास को रोका जा रहा है.
आंबेडकर ने 26 जनवरी, 1950 को ‘विसंगतियों से भरे जीवन’ में प्रवेश करने की बात कही थी. इक्कीसवीं सदी के भारत में विसंगतियां निरंतर बढ़ रही हैं, बढ़ायी जा रही हैं. आंबेडकर ने कहा था- ‘अगर पार्टियां अपने विचार को अपने देश से ऊपर रखेंगी, तो हमारी आजादी हमेशा के लिए खतरे में पड़ जायेगी.’ गैरबराबरी के खत्म न किये जाने से ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ के खतरे में पड़ने की बात उन्होंने कही थी. स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के निरंतर लोप होने की गति पिछले डेढ़ वर्ष से तीव्रतर हो रही है. ब्राह्मणवादी और रूढ़िवादी हिंदुत्व के कारण स्थितियां और विकट हो रही हैं. बंधुत्व और भाईचारे की रोहित की धारणा कहीं अधिक मानवीय व्यापक और रैडिकल थी. हैदराबाद विवि में संघ की छात्र शाखा अभाविप की अिधक पकड़ है. वहां दूसरा प्रभावशाली छात्र संगठन आंबेडकर छात्र संगठन है. संघ परिवार का संकीर्ण राष्ट्रवाद बंधुत्व के व्यापक राष्ट्रवाद को सदैव चुनौती के रूप में लेगा. संघी संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है. रोहित की आत्महत्या को बंधुत्व और समुदाय के अबाध असीम विघटन के परिणाम के रूप में देखा गया. रोहित का पत्र प्रत्येक सुशिक्षित भारतीय को सोचने को विवश करता है कि क्या आदमी मात्र आंकड़ा है, एक वोट है, एक वस्तु है? जहां स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व न हो, वहां बच जाती है केवल मृत्यु, केवल आत्महत्या. ‘संरचनात्मक असमानता’ का संबंध ‘संरचनात्मक हिंसा’ से जुड़ा है. तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की. सत्ता-व्यवस्था ने उसकी नहीं सुनी. जो सर्जक है, उसकी या तो हत्या हो रही है या वह आत्महत्या के लिए बाध्य किया जा रहा है. विश्वविद्यालय में असर असहमति और विरोध के लिए स्थान नहीं बचेगा, तो फिर कहां बचेगा? बुश की शिष्य मंडली ही यह कह सकती है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा शत्रु है और उसे ठिकाने लगा दिया जायेगा.
रोहित की आत्महत्या सांस्थानिक हत्या है. सरकार आंबेडकर की 125वीं वर्षगांठ मना रही है. रोहित की आत्महत्या के दिन लखनऊ में संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय होसाबले कार्यकर्ताओं को अगला एक वर्ष दलित सेवा के लिए ‘सेवा वर्ष’ मनाने को कह रहे थे. रोहित ने दलित परिवार में अपने जन्म को ‘एक घातक दुर्घटना’ कहा है. इस आत्महत्या को ऐसे समझिए- अभाविप के स्थानीय नेता बंडारू दत्तात्रेय को लिखित पत्र, बंडारू दत्तात्रेय द्वारा स्मृति ईरानी को लिखा गया पत्र, वहां से कुलपति को लिखा गया पत्र, उसके बाद पांच छात्राें का निलंबन और फिर रोहित की आत्महत्या. यह है हमारे समय की राजनीति. क्या इस देश में करोड़ों दलित, मुसलमान, आदिवासी और सत्ताविरोधी कवि-लेखक-बुद्धिजीवी राष्ट्रद्रोही हैं? ‘अराजकता का व्याकरण’ जो बन रहा है, उसका विरोध और अधिक होगा. उपकुलपति घिघियाते रहेंगे, कुलपति खिसियाते रहेंगे, पिटे हुए नेता और पिटे हुए अनुचर रहेंगे, पर विरोध-प्रदर्शन और आत्महत्या के विरुद्ध आवाज उठती रहेगी. रघुवीर सहाय ने कविता में कहा है- ‘कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा/ न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अंदर एक कायर टूटेगा.’ अंदर का कायर टूटेगा और तब ‘सत्ता का तिलिस्म’ भी टूटेगा. व्यवस्था बदलेगी और आत्महत्या, जो कि हत्या है, नहीं होगी. भारत तभी विकसित राष्ट्र बनेगा.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com

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