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ताज को अब तो बख्श दें, प्लीज!

बेगम मुमताजमहल और शाहजहां की बेपनाह मुहब्बत की यादगार ताजमहल अकेली ऐसी इमारत है, जो अलग-अलग भावनात्मक, धार्मिक या रोमांटिक कारणों से दुनिया के लोगों को अपनी लगती है. उनसे यह अपनापन छीना नहीं जा सकता. ताजमहल के बारे में अरसे बाद एक बहुत अच्छी खबर आयी है. भारत सरकार ने हिंदू कट्टरपंथियों के इस […]

बेगम मुमताजमहल और शाहजहां की बेपनाह मुहब्बत की यादगार ताजमहल अकेली ऐसी इमारत है, जो अलग-अलग भावनात्मक, धार्मिक या रोमांटिक कारणों से दुनिया के लोगों को अपनी लगती है. उनसे यह अपनापन छीना नहीं जा सकता.

ताजमहल के बारे में अरसे बाद एक बहुत अच्छी खबर आयी है. भारत सरकार ने हिंदू कट्टरपंथियों के इस दावे को खारिज कर दिया है कि ताजमहल कभी तेजोमहालय नाम का शिव मंदिर था. ज्ञातव्य है कि हरिशंकर जैन समेत आगरा के छह वकीलों ने वहां की सिविल जज (सीनियर) जया पाठक की अदालत में इस दावे के पक्ष में वाद दायर कर रखा है. उनके अनुसार, ताजमहल पहले तेजोमहालय नामक शिव मंदिर था, इसलिए वे चाहते हैं कि उसे पूजा-अर्चना के लिए हिंदुओं को दे दिया जाये. पिछले दिनों इस अदालत ने सभी पक्षों को नोटिस जारी कर अपना पक्ष पेश करने को कहा था. इसी सिलसिले में केंद्र सरकार की ओर से संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने कहा है कि ताजमहल के स्थान पर मंदिर होने का कोई सबूत नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब हिंदू व मुसलिम दोनों कट्टरपंथी शाहजहां व मुमताजमहल के अमर प्रेम की इस अद्भुत निशानी को बख्श देंगे और उसकी पहचान बदलने की कोशिशों से बाज आयेंगे.

दरअसल, इस समझदारी का विकास हम सबकी जिम्मेवारी है कि दुनिया के कोने-कोने से जो बारह हजार पर्यटक रोजाना इस निशानी के दीदार की हसरत लिये उसकी ओर खिंचे चले आते हैं, वह 1983 में यूनेस्को द्वारा ‘विश्व विरासत’ घोषित किये जाने के बाद ऐसी संकीर्ण पहचानों से ऊपर उठ चुकी है और उसकी इसी अनमोल रूप में रक्षा में ही सबका हित है, इसलिए उसकी बाबत कोई भी बात संजीदा तौर पर कही जाये, विवाद भड़काने या राजनीतिक स्वार्थ साधने की नीयत से नहीं.

लेकिन यह समझदारी तभी विकसित होगी, जब दो बातें समझ ली जायें. पहली कि जो लोग ताजमहल से विश्व अथवा राष्ट्रीय धरोहर होने का गौरव छीन कर उसे वक्फ के हवाले करना या तेजोमहालय के रूप में पाना चाहते हैं, उन्हें उससे कोई आत्मिक लगाव नहीं है. वे महज अपने स्वार्थों की लंबी उम्र के लिए इसको लेकर व्यर्थ विवाद खड़े करते हैं.

दूसरी कि ताज को तेजोमहालय बतानेवाले गलत इतिहासबोध के शिकार हैं, तो उसे वक्फ संपत्ति बनाना चाहनेवाले गलत कानूनबोध के. अफसोस कि ये दोनों ताज को अपने गौरवबोध से जोड़ते हैं, तो उसका गौरव बढ़ाने के बजाय घटाते ही हैं. जो समझते हैं कि ताज का वक्फ संपत्ति बन जाना मुसलमानों का गौरव बढ़ानेवाली कोई ऐतिहासिक परिघटना होगी और इसके लिए कभी उसमें दफन मुमताजमहल के शिया होने और कभी उसका निर्माण करानेवाले शाहजहां के सुन्नी होने की दलील तक जाते हैं, तो वे तेजोमहालय वालों की ही तरह समझ नहीं पाते कि इससे न उसका स्वरूप बदला जा सकेगा, न उपयोग.

देश में पहला केंद्रीय वक्फ कानून 1926 में ‘मुसलमान वक्फ कानून’ नाम से बना था, जिसे 1936 में वक्फ कानून के नाम से नया किया गया. आजादी के बाद 1954, 1967 और 1995 में विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा इसे नयी जरूरतों के हिसाब से ढाला गया और 2013 में संशोधन करके कई नये प्रावधान किये गये.

इसके अनुच्छेद 51 में मसजिदों, दरगाहों, कब्रिस्तानों, खानकाहों को वक्फ की ऐसी संपत्तियों के रूप में परिभाषित किया गया है, जिनका स्वरूप-उपयोग नहीं बदला जा सकता है. न उन्हें बेचा जा सकता है, न ही उपहार में या पट्टे पर दिया जा सकता है. मुलायम के मुख्यमंत्रित्व में इसी परिभाषा के तहत ताज को सुन्नी वक्फ बोर्ड की संपत्ति के तौर पर दर्ज किये जाने से विवाद की शुरुआत हुई, तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संगठन ने उसको संरक्षित राष्ट्रीय स्मारक बताते हुए इंसाफ के लिए हाइकोर्ट की शरण ली. कोर्ट ने कहा कि ताज वक्फ संपत्ति है या नहीं, इसके फैसले का जिम्मा यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष पर ही छोड़ देना चाहिए. बाद में इस बोर्ड के अध्यक्ष ने ताज को वक्फ संपत्ति मान लिया, तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संगठन मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गया, जिसने उसके पक्ष में स्थगन आदेश जारी कर दिया, जो अभी तक प्रभावी है.

17वीं शताब्दी में अपनी 14वीं संतान को जन्म देते वक्त संसार को अलविदा कह गयी बेगम मुमताजमहल और शाहजहां की बेपनाह मुहब्बत की यादगार ताजमहल अकेली ऐसी इमारत है, जो अलग-अलग भावनात्मक, धार्मिक या रोमांटिक कारणों से दुनिया के लोगों को अपनी लगती है. उनसे यह अपनापन छीना नहीं जा सकता. शाहजहां के बुलावे पर ईरान से आये जिन कारीगरों ने उसे अप्रतिम बनाया और बाद में उसके इर्द-गिर्द ही बस गये, उनके वंशज यह सोच कर उस पर गर्व करते हैं कि वह उनके पुरखों के हाथों का कमाल है, तो सुदूर उज्बेकिस्तान के लोग यह सोच कर कि जिन मुगलों ने उसे बनाया, वे उज्बेकिस्तान की फरगान वादी से होकर ही भारत पहुंचे थे.


कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

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