व्यालोक
स्वतंत्र टिप्पणीकार
हम भारतीयों का इतिहास-बोध जितना सूक्ष्म और मार्मिक है, अपनी विरासतों और धरोहरों के प्रति प्रेम भी उतना ही हृदय को छूनेवाला है. दिल्ली से लेकर पोरबंदर और कश्मीर से लेकर कटक तक, हम अपनी ऐतिहासिक धरोहरों की ऐसी-तैसी करने में एक समान कुशलता से संलग्न रहते हैं. हालांकि, इस मामले में मिथिलांचल और खास कर दरभंगा का फिर भी जवाब नहीं है. धरोहरों को धराशायी करने की यहां की क्षमता अद्भुत है.
वैसे, तो हम सभी देशवासी भारत की महान परंपरा के मुताबिक, किसी भी ऐतिहासिक स्मारक, विरासत या धरोहर की मिट्टी पलीद करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य ही समझते हैं. जहां कहीं भी पुलिस या प्रशासन की नजरों से बचने की गुंजाइश है, हम इसे पूरी तत्परता से निबाह डालते हैं. बुरा हो, मुए कैमरेवालों और पुलिस की मुस्तैदी का, जो ‘ताजमहल’ हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति से बच जाता है, वरना न जाने कितने ‘बबलू-बबली’- जैसे अमर-प्रेमों की शानदार कशीदाकारी (कोयले, चाकू या उपलब्ध किसी भी सामान से) ताज के सफेद संगमरमरी बदन पर नुमायां होतीं.
हमने कोणार्क के सूर्य मंदिरों, महाबलीपुरम के गोपुरों, राजस्थान के शानदार किलों और हैदराबाद के चारमीनार पर अपनी शानदार कलाकृतियां दर्ज कर रखी हैं. वैसे, तो हमने हिल-स्टेशन के मजबूत देवदारों-चीड़ों को भी नहीं बख्शा है, उन पर भी चाकू से गोद कर कभी न हो सकनेवाली प्रियाओं की बेवफाई के किस्से दर्ज किये हैं और स्वप्नलोक में स्थापित किये गये संबंधों को भी बड़ी उदारता से उकेर दिया है.
अब बात मिथिलांचल और उसमें दरभंगा की. यहां के महाराजा ने कई सारे तालाब खुदवाये, बहुत शानदार किला बनवाया. कुछ लोग कहते हैं कि किले को अगर संरक्षित रखा जाता, तो वह दिल्ली के ‘लाल किले’ को भी टक्कर दे सकता था. इसी किले की इमारतों में दो विश्वविद्यालय भी चल रहे हैं. दरभंगा के बुद्धिमानों ने हालांकि कसर नहीं छोड़ी है, किले की दीवार को जहां-तहां से तोड़ने में. पीपल-बरगद की उगी जड़ों ने भी नागरिकों का साथ दिया है.
नगर-निगम ने हालांकि पूरी मुस्तैदी से अपना कर्तव्य पूरा किया है, किले की दीवार के पास एक लाल रंग का बोर्ड लगा दिया गया है. उस पर लिखा हुआ है, ‘किले की दीवार क्षतिग्रस्त है, कृपया वैकल्पिक रास्ते का प्रयोग करें.’ वैसे, कुल जमा छह किलोमीटर की परिधि वाले दरभंगा में वह छिपा हुआ वैकल्पिक रास्ता कहां है, यह शायद नगर निगम के एकाध अधिकारियों को ही पता है.
बेहतरीन मंदिरों और इमारतोंवाला यह किला अब भुतहा और डरावना लगता है. मनुष्यों के अनियंत्रित लालच, अराजक विकास और सौंदर्यबोध की गहन अनुपस्थिति ने इसके ठाठ-बाट पर ग्रहण लगा दिया है, इसकी सारी सुंदरता को नष्ट कर दिया है.
रास्ता चलते हुए विचारवान नागरिक अपने मुंह में भरे पान (या गुटखे) को एक खास कोण से फेंक कर सड़क को लाल करते हैं और गहन विषाद की मुद्रा में ‘च्च…च्च…च्च…’ करते हुए आगे बढ़ जाते हैं.