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दाल उत्पादन बढ़ाने की जरूरत

रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार महंगे प्याज ने पहले ही किचन का जायका बिगाड़ के रखा है और अब दाल की कीमतें भी आसमान छूने लगी हैं. दालों की कीमतों पर लगाम लगाने के सरकार ने स्टॉक लिमिट, जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई, दालों के वायदा कारोबार का निलंबन जैसे उपाय किये हैं, लेकिन ये कारगर […]

रमेश कुमार दुबे
स्वतंत्र टिप्पणीकार
महंगे प्याज ने पहले ही किचन का जायका बिगाड़ के रखा है और अब दाल की कीमतें भी आसमान छूने लगी हैं. दालों की कीमतों पर लगाम लगाने के सरकार ने स्टॉक लिमिट, जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई, दालों के वायदा कारोबार का निलंबन जैसे उपाय किये हैं, लेकिन ये कारगर साबित नहीं हो रहे हैं.
सरकार भले ही थोक मुद्रास्फीति के माइनस 4.95 के ऐतिहासिक स्तर तक पहुंचने का ढिंढोरा पीट रही हो, लेकिन सच यह है कि सब्जियों व दालों की ऊंची कीमतें आम आदमी का दीवाला निकाल रही हैं. आज कोई भी दाल ऐसी नहीं है, जिसकी कीमत 100 रुपये से कम हो. महंगाई की इस आग को बुझाने के लिए सरकार ने पांच हजार टन अरहर दाल के आयात का फैसला किया है. सरकार ने दस हजार टन दालों के आयात का सौदा पहले ही कर रखा है. गौरतलब है कि दाल की आसमान छूती कीमतों के बावजूद केवल आंध्र प्रदेश ने आयातित दाल की मांग की है.
इस साल मार्च में हुई बेमौसम बारिश से दाल की फसल को नुकसान पहुंचा. रही-सही कसर कमजोर मॉनसून ने पूरी कर दी. इससे दालों का उत्पादन घट कर 1.73 करोड़ टन रह गया, जो कि पिछले साल 1.92 करोड़ टन था. इससे आपूर्ति पर दबाव बना और जमाखोरों को अपना काम करने का मौका मिल गया. दालों की कमी की मौजूदा स्थिति अचानक नहीं आयी है.
पिछले चालीस वर्षों में दालों के उत्पादन में महज एक फीसदी का इजाफा हुआ, जो कि जनसंख्या वृद्धि दर का आधा ही है. इसका परिणाम यह हुआ कि दालों का प्रति व्यक्ति उपभोग तेजी से गिरा. 1950 के दशक में जहां दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 60 ग्राम थी, वर्ष 2000 के दशक में यह महज 35 ग्राम रह गयी. पिछले एक दशक में जहां घरेलू उत्पादन में 30 फीसदी की वृद्धि हुई, वहीं आयात 17 लाख टन से बढ़ कर 45 लाख टन हो गया.
आज दाल की घरेलू खपत के एक-चौथाई की आपूर्ति आयात से होती है. जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी कम कीमत पर दाल मिलने लगी, तब सरकार ने दलहन की सरकारी खरीद से मुंह मोड़ लिया. परिणाम यह हुआ कि किसानों ने दलहनी फसले उगाना कम कर दिया.
भारत में औसतन ढाई करोड़ हेक्टेयर में दलहनी फसलों की खेती की जाती है, जिससे हर साल 1.7 से 1.9 करोड़ टन दाल पैदा होती है. विश्व के दाल क्षेत्र का एक-तिहाई रकबा भारत में है, लेकिन यहां कुल वैश्विक उत्पादन का महज 20 फीसदी ही होता है.
दालों की खेती की मुश्किलों की ओर सरकार ने कभी ध्यान दिया ही नहीं. साथ ही दलहनी खेती के प्रति किसानों में जागरूकता का अभाव भी इसके आड़े आया. यद्यपि सरकार समय-समय पर सभी प्रमुख दालों के लिए एमएसपी की घोषणा करती रहती है, लेकिन अनुशंसित कीमत पर सरकारी खरीद की पर्याप्त व्यवस्था न होने की दशा में दाल उत्पादकों के लिए कोई खास महत्व नहीं रह जाता है.
दरअसल, दलहनी फसलों के साथ जो बुनियादी जोखिम हैं, उनका समाधान नहीं किया गया. सबसे बड़ी समस्या है असिंचित क्षेत्र में दलहनों की खेती. दलहनों के अधीन क्षेत्र का महज 16 फीसदी सिंचित है, जबकि गेहूं और धान के मामले में यह अनुपात क्रमश: 93 और 59 फीसदी है. इसी का नतीजा है कि दलहनों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन महज 6.7 टन है. यदि सिंचाई सुविधा मिले, तो इसे दोगुना किया जा सकता है. सरकार की नीतियां भी दाल उत्पादन में बाधक हैं.
मसलन, सरकार हर साल दालों के आयात पर 5,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है, जबकि दलहनी खेती को बढ़ावा देने के लिए सालाना आवंटन महज 500 करोड़ रुपये है. ऐसे में दलहनों की पैदावार कैसे बढ़ेगी. सो, देश के गोदाम भले ही गेहूं-चावल से अटे पड़े हों, लेकिन दाल की कटोरी विलायत की दाल से ही भर रही है.
बढ़ती आय और मध्य वर्ग का विस्तार से दाल की मांग बढ़ रही है. लेकिन महंगाई के कारण प्रोटीन का यह प्रमुख जरिया लोगों से दूर हो रहा है. देश में पहले से ही कुपोषण के मोर्चे पर खराब हालत है. कुपोषण की व्यापकता और पशुचारे की बढ़ती किल्लत को देखते हुए सरकार को चाहिए कि वह सरकारी लाभकारी समर्थन मूल्य पर दालों की सीधी खरीद करे.
चूंकि दलहनी फसलों के अधीन क्षेत्र विस्तार की अधिक संभावना नहीं है, इसलिए उत्पादन वृद्धि के लिए ही प्रयास करने होंगे. ऐसे में सबसे जरूरी यह है कि कम समय में तैयार होनेवाली और कीट-प्रतिरोधी फसलों का विकास किया जाये.

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