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पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के दिल्ली संपादक अफगानिस्तान के कुंदुज में अमेरिका ने हमला किया, तो वह बिल्कुल ठीक था. रूस ने सीरिया पर हमला किया, तो गलत. तालिबान को सबक सिखाने के लिए कुंदुज पर हमले के पीछे अमेरिकी जनरल जॉन एफ कैंपवेल का तर्क है कि उनसे अफगानिस्तान सरकार ने सहायता मांगी थी. ऐसी […]

पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के दिल्ली संपादक
अफगानिस्तान के कुंदुज में अमेरिका ने हमला किया, तो वह बिल्कुल ठीक था. रूस ने सीरिया पर हमला किया, तो गलत. तालिबान को सबक सिखाने के लिए कुंदुज पर हमले के पीछे अमेरिकी जनरल जॉन एफ कैंपवेल का तर्क है कि उनसे अफगानिस्तान सरकार ने सहायता मांगी थी. ऐसी ही ‘सहायता’ सीरिया ने भी रूस से मांगी थी. पुतिन ने बाकायदा रूसी संसद में इसकी सहमति ली थी.
अमेरिकी बम कुंदुज के एक अस्पताल पर गिरा, जिसमें चिकित्साकर्मियों सहित 22 लोग मारे गये हैं. कैंपवेल इसे ‘मिस्टेक’ मानते हैं. नौ माह पहले अमेरिका ने अफगानिस्तान में युद्ध विराम की घोषणा की थी, तब लगा था कि शायद इस इलाके को निजात मिली. लेकिन इस भ्रम से हमें बाहर निकल लेना चाहिए.
रूसी मीडिया की निगाह में 28 सितंबर, 2015 को संयुक्त राष्ट्र में सीरिया पर बोलनेवाले पुतिन, पश्चिम एशिया में शांतिदूत की तरह नुमाया हुए हैं, वे ‘सुपरमैन’ हैं. 30 सितंबर को जब रूसी जेट सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के राजनीतिक विरोधियों के कैंप पर बम बरसाने लगे, तो अमेरिका और उसके मित्रों को लगा कि सीरिया को रूस, दूसरा अफगानिस्तान बनाने जा रहा है. रूसी बम ‘आइसिस’ पर नहीं बरसे हैं. नाटो ने धमकी दी है कि रूस ने दोबारा तुर्की की हवाई सीमा के उल्लंघन की हिमाकत की तो फल भुगतने को तैयार रहे.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के शासन का अंत चाहते हैं, साथ-साथ आतंक का पर्याय बन चुके इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक एंड सीरिया (आइसिस) की समाप्ति भी. बशर 16 जुलाई, 2014 को तीसरी बार सीरिया के राष्ट्रपति बने हैं. बशर छह साल और अमेरिका के सीने पर मूंग दलेंगे. सीरिया में तानाशाही शासन है, और उसका हटना जरूरी है. लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की ठेकेदारी अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्रों ने ही क्यों ले रखी है? भूमध्यसागर वाले इलाके के लोगों को पता है कि इस मुहिम में अमेरिका, तुर्की और इजराइल की तिकड़ी सबसे अधिक सक्रिय है. इन्हें सऊदी अरब, और कतर से भी मदद मिल रही है.
बशर के पिता हफीज अल-असद सन् 2000 में स्वर्ग सिधार जाने से पहले 29 साल तक सीरिया की सत्ता पर विराजमान रहे. उनके उत्तराधिकारी, बशर अल-असद राष्ट्रपति बनने से पहले आंखों के डॉक्टर थे, और राजनीति में कभी न आने की कसमें खाते थे. 1963 से ही सीरिया में बाथ पार्टी सत्ता में है. सीरिया के बारे में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने विदेश मंत्री रहते 2013 में भविष्यवाणी की थी कि यहां कभी भी गृहयुद्ध छिड़ सकता है. यह सच साबित हुआ. सीरिया के गृहयुद्ध में अब तक एक लाख साठ हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जो अंतरराष्ट्रीय विफलता का शर्मनाक पहलू है.
अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी विक्टोरिया नूलैंड ने जून 2011 में स्वीकारा था कि बहुत सारे सीरियाई नागरिक हमारे संपर्क में हैं, जो व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं. कहने के लिए लीबिया, इराक, अफगान, सोमालिया, सीरिया, यमन, मिस्र जैसे देशों में न्यू मीडिया ने क्रांति का आगाज कर रखा है. लेकिन इंटरनेट की सेवादाता कंपनियों का रिमोट कंट्रोल अमेरिकी हाथों में है. इससे समझा जा सकता है कि सीआइए किस तरह के सीरिया के खेल में शामिल है, जिसे मोसाद का समर्थन मिल रहा है. इसे काउंटर करने के लिए बशर अल-असद ईरान-रूस-सीरिया के बीच कूटनीतिक गंठजोड़ चाहते हैं.
अमेरिका की हिट लिस्ट में सीरिया आज से नहीं, पिछले साढ़े चार दशकों से है. 1971 में सीरिया ने अपने बंदरगाह शहर तारतुस में रूसी नौसैनिक अड्डा बनाने की अनुमति देकर अमेरिका की नींद उड़ा दी थी. तारतूस में रूसी हथियार धड़ल्ले से बिकते हैंै. भूमध्यसागर में रूस का यह अकेला नौसैनिक अड्डा है, जिससे बचने के लिए 2008 में अमेरिका ने पोलैंड समेत पूर्वी यूरोप में परमाणु प्रतिरक्षा कवच बनाने की ठान ली थी. 2010 तक रूस सीरिया को डेढ़ अरब डाॅलर के हथियार दे चुका था. पिछले वर्ष भी रूस सीरिया को चार अरब डाॅलर के हथियार भेजने का समझौता कर चुका है. लेकिन एक सच यह भी है कि सुन्नी विद्रोही संगठन ‘अल नुसरा’ को पेंटागन ने लगातार हथियारों की खेप भेजी है. अमेरिकी सेंट्रल कमांड के प्रवक्ता कर्नल पीट्रिक राइडर ने 25 सितंबर, 2015 को इसे स्वीकार किया है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में सीरिया के खिलाफ प्रतिबंध प्रस्ताव चीन और रूस के वीटो के कारण पास नहीं हो सका. सीरिया को इससे शह मिलती गयी, और चीन-रूस के खिलाफ गुस्सा बढ़ता गया है. ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र में ‘वीटो’ के कारण जो प्रस्ताव गिरता है, वही प्रस्ताव 28 सदस्यों वाले यूरोपीय संघ में पास कराया जाता है. ईरान के साथ भी ऐसा ही हुआ था. अमेरिकी मित्र मंडली उन देशों के पीछे पड़ी है, जो सीरिया से व्यापार कर रहे हैं.
भारत उनमें से एक है. भारत पर दबाव है कि वह सीरिया में 115 अरब डाॅलर के निवेशवाली योजना स्थगित कर दे. भारत-चीन साझे रूप से सीरिया में तेल की खोज, दोहन-प्रशोधन और उसकी ‘मार्केटिंग’ में शामिल हैं. सीरिया में अधोसंरचना के क्षेत्र में दर्जनों भारतीय कंपनियां काम कर रही हैं. भारत पर सबसे अधिक दबाव तेल व्यापार से पीछे हट जाने के लिए है.
सवाल यह है कि क्या अमेरिका के कहने पर भारतीय कंपनी ओएनजीसी ‘विदेश’ सीरिया में अपना जमा-जमाया कारोबार छोड़ दे? यह किस तरह की चौधराहट है? सीरिया से भारत के रिश्ते बहुत पुराने हैं. भारत में जो पहला चर्च स्थापित हुआ था, वह सीरियन चर्च ही था. उसकी स्थापना करनेवाले, यीशु मसीह के 12वें प्रचारक, सेंट थॅमस पहली सदी में केरल आये थे, और फिर यहीं के होकर रह गये.
‘पश्चिमी क्लब’ का आरोप है कि लेबनान के अंदरूनी मामलों में सीरिया टांग अड़ाता है. 14 फरवरी, 2005 को लेबनान के प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या में सीरिया का हाथ बताया जाता है.
फिलिस्तीनी अतिवादी सीरिया में पनाह लेते रहे हैं. देह व्यापार, आतंकवाद, हवाला व ड्रग तस्करी को सीरिया के शासक बढ़ावा देते रहे हैं. तो क्या पश्चिम समर्थक सीरिया के पड़ोसी देश इजराइल, तुर्की, लेबनान दूध के धुले हैं? सीरिया के संदर्भ में भारत की गुटनिरपेक्ष नीति ही सही है. फिलहाल, इसके अलावा हमारे पास कोई और विकल्प नहीं दिखता!

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