देवेंदर सिंह
समाजशास्त्री
हाल में आये सामाजिक, आर्थिक एवं जातिगत जनगणना के आंकड़े इस समय बहस में हैं, लेकिन जो लोग ग्रामीण भारत के हालात से वाकिफ हैं और आंकड़ों का अध्ययन करते रहते हैं, उनके लिए ये सूचनाएं बहुत चौंकानेवाली नहीं हैं.
गांव के लोगों और गरीबों की दशा लंबे समय से ही बिगड़ती जा रही है. करीब एक दशक पहले अजरुन सेनगुप्ता कमिटी ने असंगठित क्षेत्र के बारे में बताया था कि देश की 70 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है यानी उसकी दैनिक आमदनी महज 20 रुपया है.
एक देश के रूप में आजादी के बाद हमारी उपलब्धियां भी हैं. जीवन प्रत्याशा, सकल घरेलू उत्पादन और प्रति व्यक्ति आय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. लेकिन, ये ‘औसत’ पर आधारित आंकड़े हैं.
इससे परे एक बड़ी निराशाजनक तसवीर उभरती है. बिखरे हुए विभिन्न तथ्य यह स्पष्ट संकेत करते हैं कि समेकित और सामूहिक रूप से हमारा विकास नहीं हो सका है. बहुसंख्यक आबादी वंचित है, धनी और गरीब के बीच फासला बढ़ रहा है और अधिकतर लोगों तक मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच सकी हैं. गरीबी, विषमता और वंचना परस्पर अंर्तसबंधित हैं.
हाल में जारी जनगणना के आंकड़े कुछ विचलित करनेवाली सूचनाएं दे रहे हैं : चार में से तीन ग्रामीण परिवारों में कोई भी सदस्य पांच हजार रुपये मासिक से अधिक अजिर्त नहीं करता है, 10 में से नौ परिवारों में कोई भी 10 हजार मासिक से अधिक नहीं कमाता, आधे से अधिक यानी 56 फीसदी ग्रामीण परिवार भूमिहीन हैं. करीब इतनी ही संख्या उनकी है, जिनकी आय का मुख्य जरिया मजदूरी है.
यह सच अब पूरी तरह से सामने है कि खेती पर आश्रित परिवारों के लिए कृषि एक नुकसानदेह उपक्रम है. लागत खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है, पर उस अनुपात में न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि नहीं हुई है. नुकसान में होने के कारण कृषि अधिक श्रम को रोजगार देने और अच्छी आय देने में अक्षम है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि 2004 से 10 करोड़ लोग खेती का काम छोड़ कर असंगठित और अनियमित मजदूर बन गये हैं.
गरीबी के कई स्वरूप हैं. इसमें सबसे भीषण है कई दिनों तक भूख का सामना करना. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के 80 करोड़ कुपोषण के शिकार लोगों में 19.20 करोड़ यानी करीब 25 फीसदी भारत में हैं. अनेक आंकड़े यह बताते हैं कि देश में विषमता लगातार बढ़ रही है, खासकर 1991 के बाद से.
ग्लोबल वेल्थ डेटाबैंक की रिपोर्ट बताती है कि सबसे धनी एक फीसदी भारतीयों के पास फिलहाल देश की 49 फीसदी निजी संपत्ति है. वर्ष 2000 में यह आंकड़ा 37 फीसदी था. सर्वाधिक धनी 10 फीसदी के हाथ में 74 फीसदी निजी संपत्ति का स्वामित्व है, जबकि 2000 में यह 66 फीसदी ही था. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया के 20 फीसदी गरीब भारतीय हैं. इस विषमता ने भयानक गरीबी पैदा की है और गरीबी निवारण के उपायों से बड़ी आबादी इस कारण बाहर हो गयी है.
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने अपने एक लेख में दिलचस्प उदाहरण दिया है. एक ग्रामीण महिला को पशुधन खरीदने के कर्ज पर 36 फीसदी ब्याज देना पड़ता है, जबकि एक बड़ा कॉरपोरेट घराना करोड़ों रुपये का कर्ज महज 0.1 फीसदी की दर पर हासिल कर सकता है. इन घरानों के लिए ऐसी व्यवस्थाएं भी हैं कि उनके कर्ज या ब्याज माफ कर दिये जायें. एक विषम समाज में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, कौशल विकास और रोजगार के अवसर गरीबों की पहुंच से दूर हो जाते हैं.
ऐसी स्थिति में धनी और प्रभावशाली लोग देश की प्राथमिकता बन जाते हैं. शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पादन का महज चार फीसदी खर्च होना सार्वजनिक या सरकारी अवहेलना का ज्वलंत उदाहरण है.
इस कारण करीब 60 करोड़ लोग निरक्षर या मामूली शिक्षित हैं. यूनेस्को के एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 1.77 करोड़ बच्चे और किशोर स्कूल नहीं जाते हैं. यह संख्या दुनिया के ऐसे बच्चों का 14 फीसदी है. गरीबी के कारण स्कूल छोड़ने की मजबूरी भी होती है.
ऐसे बच्चों के सामने मजदूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. आय के लिए विस्थापन ऐसी स्थिति में अवसादपूर्ण हो जाता है और उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा और निरंतर आमदनी की संभावना भी नहीं होती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोजगार व कौशल विकास और गरीबी निवारण के लिए उम्मीदें जगायी हैं. केंद्र सरकार ने आर्थिक और सामाजिक स्तर पर वित्तीय समावेशीकरण और कौशल विकास के लिए अनेक योजनाएं और कार्यक्रमों की शुरुआत भी की है.
ये पहलें निश्चित रूप से सराहनीय हैं, लेकिन देश और देशवासियों को इस बदहाली से उबारने के लिए मूलभूत संरचनात्मक और नीतिगत बदलाव की जरूरत है, जिसमें आखिरी आदमी को फायदा पहुंचाने का लक्ष्य हो.