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जाति के आंकड़ों से कौन डरता है?

प्रो योगेंद्र यादव स्वराज अभियान के संस्थापक एवं वरिष्ठ राजनीति विज्ञानी जाति का भूत देखते ही अच्छे-अच्छों की मति मारी जाती है. या तो लोग बिल्ली के सामने आंख मूंदे खड़े कबूतर की तरह हो जाते है, कड़वी सच्चाई का सामना करने के बजाय यह खुशफहमी पालने लगते हैं कि जाति है ही नहीं. या […]

प्रो योगेंद्र यादव
स्वराज अभियान के संस्थापक एवं वरिष्ठ राजनीति विज्ञानी
जाति का भूत देखते ही अच्छे-अच्छों की मति मारी जाती है. या तो लोग बिल्ली के सामने आंख मूंदे खड़े कबूतर की तरह हो जाते है, कड़वी सच्चाई का सामना करने के बजाय यह खुशफहमी पालने लगते हैं कि जाति है ही नहीं. या फिर उनकी गति सावन के अंधे की तरह हो जाती है. सावन के अंधे को हरा ही हरा सूझता है और इसी तर्ज पर कुछ लोगों को हर बात में जाति ही जाति नजर आने लगती है. सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक-जाति जनगणना के जाति संबंधी आंकड़े सार्वजनिक न करने से उपजी बहस हिंदुस्तानी दिमाग की इसी बीमारी का एक नमूना है. सरकार की सफाई पहली नजर में ठीक लगती है.
जनगणना के आंकड़े बीनने-छानने में वक्त लग जाता है. इसलिए सारे आंकड़े एक साथ जारी नहीं होते, इसमें कई साल लग जाते हैं. पहले सात-आठ साल लगते थे, अब के कंप्यूटरी जमाने में तीन-चार साल लगते हैं. बेहतर होता, सरकार बताती कि किस तारीख तक जाति की गिनती को कागज पर अंतिम रूप दे दिया जायेगा, जातिवार आंकड़े सार्वजनिक कर दिये जायेंगे. पर जाति संबंधी आंकड़े जारी न करने को लेकर सरकार की दलील सुनने पर सरकार की नीयत पर शक होता है.
जब जेटली कहते हैं कि इस सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य गरीबी की जानकारी जुटाना है, तो साफ है कि सरकार गोली देने की कोशिश कर रही है. हकीकत यह है कि कांग्रेस या बीजेपी, किसी भी सरकार की मंशा नहीं थी कि जातिवार जनगणना हो. दोनों सरकारों ने इसे रोकने, टालने और मोड़ने की कोशिशें कीं. खैर कहिए कि संसद में बहस हो गयी और सरकार को जातिवार जनगणना की बात सिद्धांत रूप में स्वीकारनी पड़ी. फिर इसे उलझाने के षड्यंत्र रचे गये. जाति की गणना संग सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण भी नत्थी कर दिया. अब कहा जा रहा है कि असली बात तो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण की ही थी, जाति की गणना नहीं.
जब रामविलास पासवान जाति गणना को गोपनीय रखने के तर्क देने लगते हैं, तो सरकार की नीयत पर शक और पुष्ट होने लगता है. व्यक्तिगत आंकड़े गोपनीय होते हैं, आप नहीं पूछ सकते कि फलां व्यक्ति ने अपनी जाति क्या बतायी है! पर जाति विषयक कुल तालिकाओं का जोड़-जमा सार्वजनिक करना जरूरी है. यह सब जानते-बूझते जब पासवान जी कहते हैं कि जातियों की गणना को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, तो जान पड़ता है कि सरकार ने इस आंकड़े को दबाने की ठान ली है.
जातिवार जनगणना के आंकड़े से सरकार डरती है, बड़े राजनीतिक दल डरते हैं, और डरते हैं सामाजिक न्याय के वे पक्षधर जो जाति की तहों के भीतर झांकने से कतराते हैं. सबके डर की अपनी-अपनी वजहें हैं.
जाति के आंकड़ों से कांग्रेस-बीजेपी और पूरा राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान डरता है. उन्हें डर है कि जाति का जिन्न बोतल से बाहर आ जायेगा. पिछड़ी जातियों की संख्या सार्वजनिक हो जायेगी और लोगों को आधिकारिक रूप से पता चल जायेगा कि जिस जाति समुदाय की संख्या इस देश में सबसे ज्यादा है, वह शिक्षा और नौकरियों के अवसर के मामले में कितना पीछे है.
उन्हें डर यह है कि जाति और नौकरी के संबंध पर से परदा उठ जायेगा. राजनीति, अफसरशाही और अर्थव्यवस्था पर अगड़ी जाति के वर्चस्व का राज खुल जायेगा. वैसे इसमें कुछ छुपा नहीं है, पर जाति के आंकड़ों के सामने आते ही इस तथ्य की आधिकारिक पुष्टि हो जायेगी. मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद से मोटा-मोटी जानते तो सब ही हैं कि इस देश में अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल लोगों की संख्या 45 से 50 फीसदी और सवर्ण जाति के लोगों की संख्या 16-20 फीसदी के आस-पास है, पर जाति की आधिकारिक गणना के सार्वजनिक होने से शिक्षा और नौकरियों में संख्या के हिसाब से भागीदारी का सवाल भी पुरजोर तरीके से उठेगा. बराबरी के इसी सवाल को बड़ी पार्टियां और सरकार कभी खुल कर सामने नहीं आने देना चाहते.
जाति के आंकड़ों से मंडल और सामाजिक न्याय के पक्षधरों में भी बेचैनी हो सकती है. उन्हें डर है, सर्वेक्षण कहीं यह न दिखा दे कि जाति सामाजिक अन्याय का एक महत्वपूर्ण कारक तो है, पर एकमात्र कारक नहीं.
ओबीसी में आनेवाली जातियों के बीच शिक्षा और नौकरियों में अवसर के लिहाज से चंद जातियों के वर्चस्व की बात जाति जनगणना के आंकड़ों से आधिकारिक रूप से उजागर हो सकती है. यह भी सामने आ सकता है कि एक ही जाति के बीच वर्ग और लिंग-भेद भी अवसरों की असमानता का बहुत बड़ा कारक है. इन बातों के उजागर होने पर सामाजिक न्याय की राजनीति को पुराने र्ढे पर चलाना मुश्किल होगा.
जातिवार आंकड़े को सार्वजनिक करना जातिवाद नहीं है, यह जाति के भूत को वश में करने का तरीका है. आरक्षण पर रुक गयी बहस को सार्थक दिशा में ले जाने का यह एक जरूरी अवसर भी है, बशर्ते हम जाति के भूत से आंखें खोल कर सामना करने को तैयार हों.

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