अगर आप हमेशा अपनी टीम को हमेशा जीतता हुआ देखना चाहते हैं, तो तय जानिए कि आप खेल नहीं रहे हैं, बल्कि युद्ध लड़ रहे हैं. और, अगर हार का ठीकरा हमेशा किसी एक खिलाड़ी के प्रदर्शन के मत्थे फोड़ना चाहते हैं, तो फिर यह भी तय है कि आप क्रिकेट को ग्यारह खिलाड़ियों का खेल नहीं, बल्कि दो पहलवानों की कुश्ती समझते हैं.
बांग्लादेश से हुई हार के बाद मची हाय-तौबा में ये दोनों बातें नजर आ रही हैं जिनमें भावातिरेक है, तर्क और विवेक नहीं. भावनाओं का उबाल हमेशा चीजों के असली स्वरूप को ढंक लेता है, जबकि देखने-परखने के लिए तर्क और विवेक जरूरी है. अचरज नहीं कि भारतीय टीम के पिछले प्रदर्शनों को भूल कर मलाल कुछ ऐसा जताया जा रहा है, मानो टीम ने हमेशा के लिए अपनी प्रतिष्ठा गंवा दी हो और उसका कोई भविष्य न हो.
साथ ही, कारण के रूप में महेंद्र सिंह धौनी की कप्तानी को चिह्न्ति किया जा रहा है, मानो अकेले वही खेल रहे हों. जिन्हें बांग्लादेश में मिली हार तिलमिलानेवाली या फिर भारतीय टीम की शान पर बट्टा लगानेवाली लग रही है, वे हमेशा बांग्लादेश टीम को कमजोर और अपनी टीम को सबसे मजबूत देखने के अविवेकी आकांक्षा से भरे हैं. वे नहीं जानते हैं कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है. वे भूल रहे हैं कि मात्र तीन महीने पहले यही भारतीय टीम विश्वकप के सेमीफाइनल में पहुंची थी. उन्हें यह भी नहीं सूझ रहा कि हाल के समय में बांग्लादेश टीम ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है.
उसने भारत से तुरंत पहले एक और विश्वविजयी टीम पाकिस्तान को भी शिकस्त दी है. कुल बहस मात्र इस पर अटक गयी है कि विराट कोहली बेहतर कप्तान साबित होंगे या महेंद्र सिंह धौनी, और इसमें यह चिंता बिल्कुल नहीं कि किसी एक खिलाड़ी को पूरी टीम का तारणहार मानना उसे खिलाड़ी नहीं, बल्कि चमत्कारी देवता बनाने सरीखा है.
सफल कप्तान रहे सौरभ गांगुली के भी प्रदर्शन को कभी इसी तरह कोसा गया था. वही कसक है जो सौरभ गांगुली ने धौनी की कप्तानी के प्रति सम्मान बनाये रखने की बात कही है. धौनी ने भी इस्तीफे की पेशकश करके आलोचकों को करारा जवाब दिया है.
जरूरत किसी एक खिलाड़ी को तारणहार मानने या फिर क्रिकेट के मैदान को युद्ध का मैदान मानने की जगह, अच्छा क्रिकेट खेलनेवाली टीम के लिए प्रशंसा भाव जगाने की है. खेल-भावना यही है कि आप अपनी टीम की जीत के लिए क्रिकेट को पसंद नहीं करते, बल्कि आप अच्छे क्रिकेट को पसंद करते हैं.