प्रियंका
स्वतंत्र टिप्पणीकार
इलाहबाद स्टेशन आते ही ट्रेन के डिब्बे में अचानक शोर बढ़ गया. मैं नींद से जाग गयी. बर्थ से उतरने ही वाली थी कि सामने से किन्नरों की पूरी टोली आ गयी और अपने चिर-परिचित अंदाज में बख्शीस मांगने लगी.
मेरी बर्थ के आस-पास के लोग नाक-मुंह सिकोड़ते हुए उन्हें कुछ पैसे देते या मना कर देते. किन्नरों की टोली ऐसा व्यवहार देख तैश में आ जाती और जोर-जोर से चिल्लाते हुए, हाथों को पीटते हुए, उनसे अभद्र व्यवहार करनेवालों को गालियां देने लगी.
जब उनमें से कुछ किन्नर मेरे पास आये तो मैंने कहा- मैं आपको कुछ दे तो नहीं सकती, पर आइए मेरे साथ बैठ कर चाय पीजिए. मेरा इतना कहना था कि सभी किन्नर शांत हो गये. मैंने तुरंत चाय वाले को बुलाया और सभी किन्नरों को चाय पिलाने के लिए कहा.
चाय की चुस्कियों के बीच ही सभी ने अपना नकली नाम बताया और असली भी. मैंने जैसे ही चाय के पैसे देने के लिए हाथ बढ़ाया, उन किन्नरों में से एक ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा-नहीं हम तुम्हें पैसे नहीं देने देंगे.
लोग हमसे दूर भागते हैं, हमें देखना पसंद नहीं करते, हमें काम पर रखना पसंद नहीं करते, हमें अपशगुनी कहते हैं, लेकिन तुमने हमें अपने साथ चाय पीने को कहा. हमें और कुछ नहीं चाहिए. यही अपनापन हम चाहते हैं, जो तुमने हमें दिया है. बहुत दे दिया तुमने.इतना कह कर किन्नरों की टोली चली गयी और मैं सोचती रह गयी कि यह है हमारा समाज और इसके लोग.
किन्नर समाज से बहिष्कृत हैं. उन्हें लोग अपने आस-पास नहीं देखना चाहते, उन्हें काम पर नहीं रखते, तो भला कैसे ये लोग अपनी जीविका चलायेंगे. मांगेंगे ही फिर. कोई नहीं देगा तो झगड़ा भी करेंगे. आखिर किन्नर भी हमारे समाज का हिस्सा हैं, वे भी इसी दुनिया के हैं, फिर क्यों इनसे इतनी नफरत? इनके किन्नर होने से, या इनके संपूर्ण स्त्री और संपूर्ण मर्द न होने से?
पिछले साल अदालत ने लंबे समय से किन्नर समाज की चली आ रही एक मांग को स्वीकार करके एक पहल की थी, जिसके बाद इस पहल को आगे ले जाने का जिम्मा समाज का है. दरअसल, अब हमें यह देखना है कि ऐसे कितने लोग हैं, जो किसी किन्नर को अपने घर बुला कर उसके साथ गपशप, चाय-नाश्ता, खाना-पीना करेंगे? कितने लोग ऐसे होंगे, जो अपने पारिवारिक अनुष्ठानों में, शुभकार्यो में किन्नरों को मेहमान की तरह आमंत्रित करेंगे?
जब तक सामाजिक सोच को नहीं बदला जायेगा, किन्नरों को इंसान नहीं समझा जायेगा. इसके लिए खुद किन्नर समाज को भी अपने चारों ओर बनी बंदिशों का रहस्यमयी घेरा तोड़ने की जरूरत है. महज नाच-गाकर धनार्जन करने के बजाय, समाज की मुख्यधारा में आने का प्रयास उन्हें भी करना होगा.
हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार ने मानवी बंद्योपाध्याय नामक किन्नर शिक्षाविद् को कृष्णानगर महिला महाविद्यालय की प्रधानाचार्या नियुक्त किया. इसे एक बड़ा कदम माना जा रहा है. यह देश में अपनी तरह का पहला मामला है. इस तरह की पहल ही समाज को बदलने में सहायक होंगी. जरूरत है तो बस थोड़ी-सी सामाजिक जागरूकता की, पहल की और इस बदलाव को अपनाने की.