विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
इस पर विचार करने की जरूरत है कि खाद पर 70 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देने के बावजूद किसान के तन पर कपड़ा नहीं है. क्या यह सच नहीं कि डेढ़ लाख करोड़ रुपये की कृषि-सब्सिडी का बड़ा हिस्सा बड़े किसानों और कारोबारियों के पास पहुंच जाता है?
राजनीतिक दल और सरकारें हर छोटी-बड़ी चीज का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करते हैं, और इसमें कुछ गलत भी नहीं है. गलत यह तब हो जाता है जब राजनीतिक लाभ उठाना ही दलों और सरकारों का एकमात्र उद्देश्य लगने लगता है.
आम चुनाव में मतदाता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत देकर उसके दावों और वादों में विश्वास प्रकट किया था. सरकार को पूरा अवसर दिया था कि उस सबको करके दिखाये जो वोट मांगते समय उसने कहा था. पर सरकार के सामने एक दिक्कत थी- लोकसभा में तो उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त है, लेकिन राज्यसभा में अल्पमत में होने के कारण वह बहुत सारे मुद्दों पर स्वयं को असहाय पा रही है. सरकार की यह दिक्कत समझ में आती है, लेकिन जो समझ नहीं आता वह यह है कि ऐसे मुद्दे, जिनमें राज्यसभा की सहमति की सांविधानिक बाध्यता नहीं है, उन्हें सुलझाने में क्या दिक्कत है.
और यह बात भी समझ में आनी मुश्किल है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार को नारों और जुमलों में जीने की आदत क्यों पड़नी चाहिए. आकर्षक नारे और लोक-लुभावन जुमले अच्छे तो लगते हैं, पर बहुत दूर तक साथ नहीं देते. सालभर के शासन के बाद अब केंद्र सरकार को कुछ ठोस करके दिखाने की जरूरत है.
यह बात अक्सर दोहरायी जाती है और सही भी है कि सालभर का समय बहुत नहीं होता बहुत कुछ करके दिखाने के लिए. पर दूसरा साल किसी भी सरकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण और चुनौती भरा होता है. कुल पांच साल का समय दिया है मतदाता ने भाजपा को. यदि इस दूसरे साल में सरकार कुछ ठोस करके नहीं दिखाती, तो फिर आगे की राह बहुत ढलवां है, फिसलन भरी भी.
सवाल उठता है, ठोस क्या है जो उसे करना है? सच पूछा जाये तो उसे वही करना है, जिसके उसने वादे किये हैं. वही यानी आम नागरिक की जिंदगी में बेहतरी की दिशा में स्पष्ट बदलाव की निर्णायक कोशिश.
विदेशी मोर्चो पर सरकार की कथित सफलताएं अपनी जगह हैं, पर देश के भीतर सकारात्मक बदलाव के प्रति या तो सरकार गंभीर नहीं है या फिर स्वयं को बेबस पा रही है. सबसे पहले किसानों की बात करें. देश की 65 प्रतिशत आबादी आज भी किसानी से जुड़ी है. खेती मुख्य धंधा है हमारा. लेकिन किसान बेहाल है.
किसानों की आत्महत्याओं की खबरें लगातार आती हैं, पर मीडिया और सरकार, दोनों तभी उन्हें गंभीरता से लेते हैं, जब कोई किसान राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर आकर आत्महत्या करता है. देश में खेती की स्थिति की हकीकत यह है कि आज हमारे पास छह करोड़ टन अनाज का भंडार है, फिर भी हमारा किसान भूखा है! कहीं न कहीं हमारी नीतियों में खोट है. और शायद नीयत में भी. इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि खाद पर 70 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देने के बावजूद किसान के पेट में रोटी नहीं है, उसके तन पर कपड़ा नहीं है.
क्या यह सच नहीं कि लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये की कृषि-सब्सिडी का बड़ा हिस्सा बड़े किसानों और बड़े कारोबारियों के पास पहुंच जाता है? छोटे किसान को, जिनकी संख्या कुल कृषकों के 80 प्रतिशत के करीब है, न सब्सिडी का उचित हिस्सा मिल पाता है और न ही खादों तक उसकी पर्याप्त पहुंच है. यह एक उदाहरण है हमारी कृषि-नीति में खामी का, लेकिन पर्याप्त है यह बताने के लिए कि इस दिशा में वह सब नहीं हो रहा जो होना चाहिए था.
पिछले एक साल में इस दिशा में कोई खास कदम उठता नहीं दिखाई दिया है. जो दिख रहा है वह यह है कि आम जनता की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान देने के बजाय सरकार दिखावे के कार्यक्रमों पर ज्यादा जोर दे रही है. उदाहरण के लिए विश्व योग दिवस को ही लें. महत्वपूर्ण क्या है, योग के माध्यम से जन-स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता अथवा ‘गिनीज बुक ऑफ रेकार्ड’ में जगह पाना? यह सब कुछ जुमलों की उस राजनीति का हिस्सा है, जिसके हम जाने-अनजाने शिकार बनते जा रहे हैं. मोदी सरकार ने आते ही जो पहला काम किया, उसमें योजना आयोग को समाप्त करना शामिल था.
ऐसा करके संकेत यह दिया गया था कि अब बुनियादी बदलाव होगा. पर हुआ क्या? उसकी जगह बनाये गये नीति आयोग का अब तक पूरी तरह से गठन भी नहीं हो पाया! यह कम गंभीर बात नहीं है. उतनी ही गंभीर बात स्वायत्त शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा-मंत्रलय की दखलंदाजी है. यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से लेकर तमिलनाडु के एक तकनीकी संस्थान तक में अनुचित हस्तक्षेप के उदाहरण दिख रहे हैं.
पुणो के फिल्म इंस्टीट्यूट में जिस तरह से ‘युधिष्ठिर’ को सर्वेसर्वा बनाया जा रहा है, वह भी ऐसे मामलों में सरकार की अगंभीरता को ही उजागर करता है. सवाल यही नहीं है कि सरकार ‘अपने लोगों’ को शैक्षणिक संस्थानों पर क्यों थोप रही है, सवाल यह भी है कि क्या सरकारी दल के पास ‘योग्य अपने लोगों’ की कमी है?