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दिल्ली की अजीब विदेश नीति

।।एमजे अकबर।।(वरिष्ठ पत्रकार)हर पड़ोस में कोई फणधारी होता है. जहां भू-राजनीति शामिल होती है, वहां एक का दुश्मन, दूसरे का मित्र होता है. यहीं चीजें जटिल हो जाती हैं. रंजिश दरअसल, खुल्लमखुल्ला होती है. भड़काऊ कार्रवाई के अपने मानदंड होते हैं. इनका जवाब भी उम्मीदों के अनुरूप होता है. भारत और पाकिस्तान इस मामले में […]

।।एमजे अकबर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
हर पड़ोस में कोई फणधारी होता है. जहां भू-राजनीति शामिल होती है, वहां एक का दुश्मन, दूसरे का मित्र होता है. यहीं चीजें जटिल हो जाती हैं. रंजिश दरअसल, खुल्लमखुल्ला होती है. भड़काऊ कार्रवाई के अपने मानदंड होते हैं. इनका जवाब भी उम्मीदों के अनुरूप होता है. भारत और पाकिस्तान इस मामले में सटीक उदाहरण हैं. इन दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों और सेनाओं ने एक सोचा-समझा फॉमरूला विकसित कर लिया है- इतने उल्लंघन के लिए इतना गोला-बारूद. आपसी रंजिश की तनी हुई तलवार कभी परेशान करती है. कभी खरोंचती है. लेकिन, यह कभी भी एक लगभग पूर्व निर्धारित हद से पार नहीं जाती.

दिल्ली, जो ज्यादातर वक्त पीड़ित पक्ष होती है, ने अनियंत्रित पेंडुलम की गति की नब्ज पकड़ ली है. दोनों तरफ की समझदार सरकारों को मालूम है कि किसी भी स्थिति की परिणति शह या मात में नहीं होगी. यथास्थिति को बरकरार रखना उनकी जिम्मेवारी है. दोस्तों के साथ रिश्ते में कहीं ज्यादा मेहनत और कल्पनाशीलता की जरूरत होती है. भारत के राजनयिक काफी मेहनती हैं. उपमहाद्वीप के ‘बड़े भाई’ के राजनयिकों से यह अपेक्षा भी की जाती है. लेकिन पिछले पांच वर्षो से उनके काम के पीछे कोई खास मकसद नजर नहीं आता. मकसद, नीतियों का परिणाम होता है. लेकिन, भारत की सरकार ने विदेश नीति को उछल-कूद और पलायन के खेल में तब्दील कर दिया है. परिणाम साफ दिख रहा है. भारत उन देशों के मन में भी आश्चर्य या शंका को जन्म देता है, जिन्हें वास्तव में हमारा दोस्त होना चाहिए.

इस संबंध में श्रीलंका और बांग्लादेश के उदाहरण खास तौर पर ध्यान खींचते हैं. मैं इनका जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि पांच साल पहले इन दोनों पड़ोसियों के साथ हमारे संबंध कटुता के लंबे दौर के बाद अभूतपूर्व मित्रता से बस चंद कदम दूर थे. श्रीलंका के साथ भारत के संबंध, वहां राजीव गांधी द्वारा बगैर पूरी तैयारी किये गये सैन्य हस्तक्षेप के बाद रसातल में पहुंच गये थे. इंदिरा गांधी ने भी वहां हस्तक्षेप किया था. उन्होंने प्रभाकरण के नेतृत्व में तमिल पृथकतावादी शक्तियों को हथियारबंद और प्रशिक्षित करने की कोशिश की थी. राजीव का हस्तक्षेप इस कोशिश की अंतर्विरोधपूर्ण पराकाष्ठा थी, जिसके बाद तमिल और सिंहली, दोनों ही भारत से नफरत करने लगे. जनवरी, 2009 में हम जहर से लिपटी गोली की दुविधा से बाहर निकल गये थे. भारत ने तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में, जो एक साथ दृढ़ और स्पष्ट दोनों हो सकते थे, तमिल पृथकतावादियों के खिलाफ आखिरी युद्ध में कोलंबो को अपना पूरा समर्थन देने का फैसला किया था. यह सब बिना किसी प्रचार के किया गया था. अपने सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी डीएमके के दबाव के बावजूद नयी दिल्ली खामोशी से कोलंबो के हाथों लिट्टे की हार और प्रभाकरण की हत्या देखती रही.

यह एक उम्दा निवेश था. इसका इस्तेमाल दोनों पक्षों को लाभ पहुंचानेवाले संबंधों को बढ़ावा देने के लिए किया जाना चाहिए था. इसके बदले में पांच साल बाद इस बात को लेकर कयास लगाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नवंबर में होनवाले राष्ट्रमंडल देशों के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में भाग नहीं लेंगे. इसके पीछे यूपीए की यह चिंता काम कर रही है कि तमिलनाडु में इस दौरे का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, जहां श्रीलंकाई सेना के खिलाफ भावनाएं उफान पर हैं. इस फैसले को दो वजहों से तार्किक नहीं कहा जा सकता. पहला, लिट्टे के खिलाफ श्रीलंकाई सेना के आखिरी युद्ध में भारत की मूक सहमति के बारे में सबको पता है. भारत को पता था कि वहां क्या हो रहा है, लेकिन उसने चुप रहना पसंद किया. दूसरा, अगर विदेश नीति घरेलू राजनीतिक गणित की बंदी बन जाये, तो राष्ट्रीय हित से हमेशा समझौता करना पड़ेगा.

बांग्लादेश में शेख हसीना की वापसी के बाद ऐसा ही मौका आया था. भारत को ढाका में शेख मुजीबुररहमान की बेटी से बेहतर कोई मित्र नहीं मिल सकता था. लेकिन, भारत ने मौके को हादसे में बदलते हुए शेख हसीना के साथ पानी जैसे संवेदनशील मसले पर विश्वासघात किया. सवाल शेख हसीना की मांग को पूरा करने का नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह द्वारा अपने वादे को निभाने का था. भारत का प्रबंधन तंत्र ढाका में ही नहीं, कोलकाता में भी नाकाम साबित हुआ. इसलिए अगर कोलंबो भारत की मंशा को लेकर भ्रमित है और ढाका आशंकित, तो इसके पीछे की वजहों को समझा जा सकता है.

भारत जिस एक देश के साथ दृढ़ और सदाबहार मैत्री का दावा कर सकता था, वह था भूटान. भूटान के साथ संबंधों को बिगाड़ने के लिए अभूतपूर्व हुनर की जरूरत थी. लेकिन, पिछले एक साल में हमने यह भी कर दिखाया है. मनमोहन सिंह की सरकार के पास सिर्फ दो पड़ोसियों के लिए वक्त है. एक है सदैव विद्वेषी पाकिस्तान. दूसरा है दुष्ट चीन. दूसरों के लिए संदेश स्पष्ट है. दिल्ली उपद्रवियों की ओर ही ध्यान देती है, न कि मित्रता का हाथ बढ़ानेवालों की ओर. चीन को भारत से जो हासिल करना होता है, कर लेता है और जब इच्छा होती है, वह हमें फटकार लगाने से बाज नहीं आता. और आश्चर्य में पड़ा पाकिस्तान भाईचारे की हमारी बातों पर लगातार हंसता रहता है.

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