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बिहार के आसमान पर चुनावी बादल

कुमार प्रशांत वरिष्ठ पत्रकार अब मोदी पार्टी बाबासाहबमय होने जा रही है. राजधानी दिल्ली में 192 करोड़ रुपयों की लागत से डॉ भीमराव आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की आधारशिला रखने जा रहे हैं प्रधानमंत्री जिसके बारे में कहा गया है कि यह विज्ञान भवन का विकल्प बनेगा. चुनाव किसके खाते में जायेगा? आज बिहार में यह […]

कुमार प्रशांत
वरिष्ठ पत्रकार
अब मोदी पार्टी बाबासाहबमय होने जा रही है. राजधानी दिल्ली में 192 करोड़ रुपयों की लागत से डॉ भीमराव आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की आधारशिला रखने जा रहे हैं प्रधानमंत्री जिसके बारे में कहा गया है कि यह विज्ञान भवन का विकल्प बनेगा.
चुनाव किसके खाते में जायेगा? आज बिहार में यह सवाल नगाड़े की चोट पर पूछा जा रहा है. राजनीति के बादल वहां गहराने लगे हैं. बिहार की राजनीति के सभी मान्य योद्धा कपड़े बदल-बदल कर अखाड़े में उतरने लगे हैं. लेकिन सबको एहसास है कि उनके हाथ में कोई पैना हथियार नहीं है.
जो है नहीं, वह बनाना राजनीति का पहला पाठ है. इसलिए नया हथियार गढ़ा जा रहा है. जनता परिवार नाम से एक हथियार गढ़ा लालू-नीतीश ने. वह बना नहीं कि पिट गया क्योंकि उस पर धार चढ़ाने वाला कोई नहीं था. फिर बचे दो- कांग्रेस व भाजपा- के खिलाड़ियों ने अपने हथियार की तलाश शुरू की. कांग्रेस के पास हथियार एक ही है- राहुल; जिन पर कोई धार चढ़ती ही नहीं थी. पर अभी जा कर उनमें थोड़ी जान लौटी है.
भाजपा की हालत भी कुछ बेहतर नहीं है. आम चुनाव में मोदी ने जितने तीर चलाये थे, वे सब 12 महीनों में ही इस कदर तुक्का साबित हुए हैं कि इसका आत्मविश्वास हिल गया है. अब नये तीर खोजे व गढ़े जा रहे हैं; और अब जा कर एक ऐसा तीर हाथ लगा है कि जिस पर एकाधिकार की लड़ाई में राहुल और मोदी आमने-सामने आ गये हैं.
इस तीर का नाम है बाबा साहब आंबेडकर!
बाबासाहब का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोशिश काफी पहले से चलती रही है और कई हैं कि जिनकी राजनीतिक रसोई इसी ईंधन से पकती आ रही है. लेकिन तिकड़म से प्रधानमंत्री बन गये विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब लालकृष्ण आडवाणी ने तिकड़म से चुनौती दी तब उन्होंने बाबासाहब का तीर पहली बार खुल कर इस्तेमाल किया. वे भले अपनी सरकार नहीं बचा सके लेकिन बाबासाहब के आभामंडल में आ कर वे ऐसे चमकने लगे कि कितनी ही आंखें चुंधिया गयीं. उन्होंने बाबासाहब को भारत-रत्न भी बनाया, डाक टिकट भी निकलवाया, उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित किया. इसी तीर का प्रताप है कि राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीति में कितने ही नये नेतागण पैदा हो गये.
अब बिहार के चुनाव का असर देखिए कि कांग्रेस के चिर प्रतीक्षारत अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की है कि वे महू से बाबासाहब की 125वीं जन्मजयंती के कार्यक्रम की शुरुआत करेंगे. महू बाबासाहब का जन्मस्थान है. कांग्रेस सारे देश में 125वीं जन्मजयंती के कार्यक्रम आयोजित कर रही है.
वह अब सत्ता में नहीं है और राज्यों की सत्ता में भी उसकी बेहद कमजोर उपिस्थति है. फिर भी राहुल ने जो एक नया तेवर अख्तियार किया है, उस कारण कांग्रेस में सुगबुगाहट जागने लगी है. बिहार के संदर्भ में हर नयी राजनीतिक लहर पर मोदी पार्टी की नजर है. वह केंद्रीय सत्ता में मजबूती से काबिज है और राज्यों में भी उसकी मजबूत उपिस्थति है.
बस, एक ही कमी है कि उसके इतिहास में भी और उसके वर्तमान में भी कोई भी ऐसी शख्सियत नहीं है कि जिसका कोई अपना जनाधार हो. जनसंघ और भाजपा का सम्मिलित इतिहास देखें तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और अटलबिहारी वाजपेयी, तीन राष्ट्रीय नेता मिलते हैं- जो हवा बनाते थे, जनाधार नहीं रखते थे. नरेंद्र मोदी जब इस श्रेणी के चौथे नेता बनने चले तो उनके सामने भी समस्या यही खड़ी हुई कि उनका अपना जनाधार क्या है?
वे जब तक ‘मैं साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का रखवाला हूं’ वाला जुमला बोलते रहे, बात जमती थी. लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिष्ठित होने के लिए किसी पक्के जनाधार की जरूरत थी. अपना जनाधार न हो तो किसी जनाधार वाले नेता को अपना बनाने की जरूरत थी. इसलिए सबसे पहले सरदार पटेल को उन्होंने हाथ में लिया.
प्रधानमंत्री बनते ही सरदार को गुजरात के हवाले कर उन्होंने महात्मा गांधी को साथ ले लिया. महात्मा गांधी को हाथ में लेने के बाद उनकी समझ में आया कि यह खतरनाक आदमी है. इसका नाम लो तो यह काम करवाने लगता है; और उसमें अपनी सारी खोट भी सामने आने लगती है. सफाई से गांधी को जोड़ा तो उसने झाड़ू पकड़ने पर मजबूर कर दिया.
वह भी पकड़ ली तो वह कहने लगा कि इसे छोड़ो मत, हमेशा लिये रहो. मुसीबत!! इसलिए उन्हें श्रद्धापूर्वक एक तरफ कर, सुभाषचंद्र बोस को उभारा कि कांग्रेस ने और नेहरू ने हमारे नेताजी के साथ बड़ा र्दुव्‍यवहार किया, उनकी मौत का राज छिपाया, उनका खजाना गायब करवाया आदि-आदि. लेकिन बात कुछ वैसा रंग नहीं पकड़ पाई कि जिससे चुनावी रंग गाढ़ा होता है. इसलिए उन्हें पश्चिम बंगाल के लिए रख लिया गया और बिहार के लिए बाबासाहब का चुनाव किया गया.
अब मोदी पार्टी बाबासाहबमय होने जा रही है. राजधानी दिल्ली में 192 करोड़ रुपयों की लागत से डॉ भीमराव आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की आधारशिला रखने जा रहे हैं प्रधानमंत्री जिसके बारे में कहा गया है कि यह विज्ञान भवन का विकल्प बनेगा. बाबासाहब से जुड़े तीन प्रतीक-स्थलों का राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है- नयी दिल्ली का 26 अलीपुर रोड स्थित बह बंगला जहां आंबेडकर का देहावसान हुआ था, वहां 100 करोड़ की लागत से भव्य स्मारक बन रहा है; 1921-22 में, पढ़ाई के दौरान लंदन के जिस घर में वे रहे थे, उसे खरीद लिया गया है और वहां उनका स्मारक बनाया जा रहा है.
उनकी जन्मस्थली महू से भले राहुल अपना दलित कार्ड चलने जा रहे हों, सरकार तो उनकी नहीं है, सो महू में डॉ आंबेडकर इंस्टीट्यूट बन रहा है जिसे मध्यप्रदेश सरकार राज्य विश्वविद्यालय का दर्जा देगी. मुंबई में चैत्यभूमि को भी और उसके पास बन रहे नव आंबेडकर स्मृति संस्थान को भी भव्यतर बनाया जा रहा है. सामाजिक स्तर पर विवाह, भोजन आदि समरसता के कई कार्यक्र म आने वाले दिनों में आपको दिखायी-सुनायी देंगे. संघ खुल कर मैदान में आ खड़ा हुआ है कि बिहार की बिसात पर मोदी पार्टी की हार न हो.
इसलिए उसने अपने मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का आंबेडकर विशेषांक छापा और लाखों प्रतियों का वितरण करवाया. उसके संपादक हितेश शंकर ने लिखा है, ‘‘अस्पृश्यता को लेकर हेडगेवार और आंबेडकर के विचार एक थे. एक ही कालखंड के दो मनीषियों की पीड़ा सामाजिक विषयों पर एक जैसी थी.’’ लेकिन पूरी पत्रिका का एक लेख भी यह सच बयान नहीं करता है कि यदि दोनों मनीषियों की जातीय चिंता एक ही थी तो वे कभी एक साथ आये क्यों नहीं ?
पहले कभी क्यों नहीं बाबासाहब इस तरह नाता जोड़ने की कोशिश क्यों नहीं हुई? बिहार का चुनाव सिर पर न होता, और लोकसभा की जीत के बाद की यह राजनीतिक फिसलन यदि न होने लगी होती तो भी क्या आंबेडकर इतने ही प्रिय होते?
जवाब बिहार की गली-गली में पूछा जायेगा; और इन्हीं गलियों में तो राजनीति की किस्मत की कुंडली लिखी और मिटायी जाती है.

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