।।अलका आर्य।।
(महिला मामलों की लेखिका)
उसे निर्भया कहें या दामिनी या कोई भी नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आंखों के आगे स्वत: उभरती रेखाओं से बननेवाले स्केच पर. यह वह स्केच नहीं है, जो मीडिया महिलाओं के साथ होनेवाले दुष्कर्म या अन्य यौन हिंसा की वारदातों के मौकों पर अकसर दिखाता है, जिसमें आमतौर पर लड़की की छाया को घुटनों के बीच सिर दबाये दिखाया जाता है. यह स्केच एक ऐसी लड़की/ स्त्री को दिखाता है, जिसने बर्बर सामूहिक बलात्कार और जानलेवा चोटों से जख्मी होने के बावजूद जिंदा रहने के लिए संघर्ष किया और सभी आरोपियों को फांसी देने की भी मांग की थी. उसकी हिम्मत एक मिसाल बनी.
अब दिल्ली की एक अदालत ने चारों आरोपियों को फांसी की सजा सुना दी है. इसके साथ ही यह बहस फिर केंद्र में आ गयी है कि क्या यह सजा समाज में अपराधी प्रवृत्तिवालों में दहशत पैदा करने में कामयाब होगी? क्या अपराध करने से पहले अपराधी इस सजा के बावत सोचेंगे? क्या यह सजा बदलाव लायेगी? इतिहास ऐसा नहीं कहता. हत्या के जुर्म में भी फांसी की सजा का प्रावधान है, पर आंकड़े इस बात की तसदीक करते हैं कि कड़ी से कड़ी सजा भी हत्याओं को रोकने के मकसद में कामयाब नहीं हो पायी है. हत्याओं के आंकड़ों में वृद्धि जारी है. महिला संगठन भी फांसी की सजा के पक्ष में नहीं हैं. उनकी दलील है कि अगर जमीनी स्तर पर बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकना है, तो सजा की दर में वृद्धि और न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाना जरूरी है.
लेकिन इसके बरक्स यह भी कैसे बिसराया जा सकता है कि बीते माह मुंबई में एक महिला पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उस लड़की ने भी जल्दी ठीक होने और काम पर लौटने की मंशा जाहिर की. बापू आसाराम पर जिस नाबालिग लड़की ने यौन शोषण के आरोप लगाये हैं, उस ग्रामीण बालिका ने कहा है कि आइएएस ही बनूंगी, ताकि ऐसे लोगों को सबक सिखा सकूं. क्या इसे उस समाज में, जो स्त्रियों का जन्म लेने से पहले ही विरोध करने के लिए बदनाम है, मुखर बदलाव के संकेत की तरह लेना या समझना चाहिए? मेरी राय में यह संकेत है, पर उसके साथ ही इस भाव के प्रति भारत जैसे विशाल व बहुल सांस्कृतिक देश में जागरूकता फैलाना अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है.
दरअसल 16 दिसंबर, 2012 की दर्दनाक घटना से उमड़े जनाक्रोश ने सरकार को हिला दिया, समाज में ऐसे मुददों के प्रति जागरूकता आयी और सार्वजनिक विमर्श में एक बदलाव भी महसूस हुआ. यूपीए सरकार ने महिला सुरक्षा के उपायों पर सुझाव देने के लिए जस्टिस वर्मा समिति का गठन किया. समिति ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सवाल को संविधान से मिले मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के संदर्भ में रखा है यानी ऐसी घटनाओं में सरकार की जवाबदेही तय होती है. ऐसे मामलों में न्यायिक प्रक्रिया में तेजी के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों वाला मुद्दा भी उठा. यह बहुचर्चित मामला दिल्ली की फास्ट ट्रैक अदालत में करीब नौ महीने में निपटाया गया. लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या ऐसा हर मामला फास्ट ट्रैक अदालत में जायेगा? यह मांग देश की हर लड़की की है, पर वर्तमान में यह संभव नहीं दिखता. इसके प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी के चलते ऐसा बुनियादी ढांचा ही उपलब्ध नहीं है.
16 दिसंबर के बाद जिस रफ्तार से देशभर में आक्रोश उमड़ा, उसी रफ्तार से सरकार ने महिला सुरक्षा योजनाओं के एलान की झड़ी लगा दी और ऐसी हवा बनायी कि महिला सुरक्षा का मुद्दा अब सरकार की प्राथमिकता में है. लेकिन जमीनी स्तर पर उनमें से अधिकतर योजनाएं आज भी इधर-उधर भटक रही हैं. इस सरकारी लापरवाही से जहां पीड़िता व उसके परिजनों की मुश्किलों में इजाफा होता है, इंसाफ मिलने में देरी होती है, वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बदनामी का ग्राफ ऊपर जाता है. कुछेक बहुचर्चित मामलों में ही सरकार चुस्त नजर आती है.
दरअसल देश के आम लोगों ने इस जघन्य घटना के बाद सरकार व न्यायपालिका से महिला सुरक्षा के सवालों पर जो उम्मीदें पाली थीं, वे उन अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरी नहीं उतरी हैं. (चार दोषियों को फांसी की सजा वाले बिंदु को अपवाद के तौर पर देखना चाहिए). फैसला आने में नौ माह का वक्त काफी लंबा होता है, जबकि यह बलात्कार व हत्या का स्पष्ट मामला था. अब जरूरी यह है कि देश की हर महिला के भीतर यह भरोसा जगे कि वह सुरक्षित है और देश के किसी भी कोने में दरिंदे उस पर ऐसा हमला करते हैं तो वे कानून की गिरफ्त से बच कर नहीं जा सकते. लैंगिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त पुलिस और न्याय व्यवस्था की जड़ता अगर टूटे और उसकी छाप ऐसे मामलों के फैसलों पर दिखायी दे, तो सकारात्मक बदलाव की दिशा में कुछ प्रगति हो सकती है.