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मोदी सरकार सफल, पर कुछ चिंताएं भी

राजीव रंजन झा संपादक, शेयर मंथन जनता पर सीधा असर डालनेवाला मसला महंगाई पर अंकुश लगाने का है. बेशक आंकड़ों में महंगाई नियंत्रण में दिख रही है, मगर जनता को उसकी दाल-रोटी में राहत नहीं मिली है. एक बार फिर दालों की कीमतें 100 रुपये प्रति किलो के ऊपर जाने लगी हैं. मोदी सरकार का […]

राजीव रंजन झा
संपादक, शेयर मंथन
जनता पर सीधा असर डालनेवाला मसला महंगाई पर अंकुश लगाने का है. बेशक आंकड़ों में महंगाई नियंत्रण में दिख रही है, मगर जनता को उसकी दाल-रोटी में राहत नहीं मिली है. एक बार फिर दालों की कीमतें 100 रुपये प्रति किलो के ऊपर जाने लगी हैं.
मोदी सरकार का एक वर्ष पूरा होने को है और इस एक वर्ष में काफी लोग यह कहने लगे हैं कि मोदी लहर समाप्त हो गयी है.
ऐसे लोगों की बारहमासी आलोचना से प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़नेवाला. मोदी लहर इन लोगों की आलोचना के बीच ही बनी थी.
लेकिन मोदी सरकार को बाकी लोगों की बातों से जरूर चिंता होनी चाहिए. सबसे ज्यादा चिंता उन लोगों की बातों से होनी चाहिए, जिन्हें इस सरकार से काफी आशाएं थीं. चूंकि मोदी सरकार विकास के नाम पर सत्ता में आयी, इसलिए ये आशाएं मुख्य रूप से आर्थिक बदलाव की ही थीं. बड़ी उम्मीदें थीं कि देश फिर से तेज विकास के रास्ते पर लौटे, लोगों को नौकरियां मिलें, खेती की हालत सुधरे, कंपनियों की बिक्री और मुनाफे में सुधार हो.
इन्हीं उम्मीदों का एक पैमाना बना शेयर बाजार का प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स, जो पिछले साल की शुरुआत से ही मोदी सरकार बनने की उम्मीदों के साथ-साथ ही बढ़ता गया और जब पूरे बहुमत से मोदी सरकार बन गयी, तो एकदम छलांगे लगाने लगा.
साल 2014 की शुरुआत में जब मोदी सरकार बनने की संभावना वाले सर्वेक्षण आने लगे, तो सेंसेक्स 20-21 हजार के आसपास के स्तरों से ऊपर चढ़ने लगा और मई में चुनावी नतीजों के तुरंत बाद तो 25 हजार को लगभग छू गया. शेयर बाजार में तेजी का दौर तो इस साल मार्च तक भी जारी रहा, जब सेंसेक्स ने 30 हजार से ऊपर का नया रिकॉर्ड स्तर बनाया.
लेकिन अब बाजार ढलान पर है.
सेंसेक्स 27 हजार के नीचे लौट आया है. क्या शेयर बाजार की इस गिरावट को मोदी सरकार से मोहभंग के तौर पर देखा जाये? कम-से-कम यह इस बात की स्वीकारोक्ति जरूर है कि जिस तरह के करिश्माई बदलावों की उम्मीद मोदी सरकार से की गयी थी, वैसे बदलाव हो नहीं पा रहे हैं. जो लोग पहले यह मान कर चल रहे थे कि मोदी सरकार के आने से बहुत फर्क पड़ेगा, वे अब कहने लगे हैं कि कोई सरकार रातों-रात चीजें नहीं बदल सकती.
आम लोगों के मन में भी यह अहसास घर करने लगा है कि सरकार चाहे कोई भी आये, उनकी जिंदगी वैसी ही रहती है. साल भर पहले जगी उम्मीदों की तुलना में इसे एक तरह की निराशा ही कह सकते हैं.
हालांकि, अभी आम जनता को इस सरकार से कोई बड़ी शिकायत नहीं है. तो फिर शेयर बाजार बेसब्र क्यों हो रहा है? उसकी बेसब्री जुड़ी है अर्थव्यवस्था के पहिये से. उम्मीद की जा रही थी कि मोदी सरकार के आते ही यह यह पहिया तेज हो जायेगा, मगर ऐसा हुआ नहीं है. हालांकि, संशोधित तरीके से दिखाये गये जीडीपी के आंकड़े जरूर एक सुधार दिखा रहे हैं, मगर वह सुधार केवल गणित का हिसाब-किताब है.
कंपनियों की आय और मुनाफे में अब भी धीमापन बना हुआ है. इस समय कारोबारी साल 2014-15 की चौथी तिमाही, यानी जनवरी-मार्च 2015 के कारोबारी नतीजे पेश करने का मौसम चल रहा है. ज्यादातर कंपनियों के आंकड़े सुस्त और विश्लेषकों को निराश करनेवाले ही रहे हैं. दूसरी और तीसरी तिमाही के नतीजों को देखने के बाद विश्लेषकों को कंपनियों की आय में होनेवाली वृद्धि के अनुमानों को पहले से घटाना पड़ा था.
मौजूदा हालत देख लगता है कि एक बार फिर चौथी तिमाही के नतीजे सामने आ जाने के बाद वैसा ही होगा. कंपनियों की आय के अनुमानों में कमी का मतलब है उनके शेयरों को मिलनेवाले भाव में कमी. इसका सीधा असर है- सेंसेक्स में गिरावट.
लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं आ पाने के पीछे मोदी सरकार की अकर्मण्यता जिम्मेवार है? यूपीए सरकार के समय पूरा उद्योग जगत इस बात का रोना रोता था कि सरकारी दफ्तरों में फाइलें अटके रहने के चलते परियोजनाएं रुकी हुई हैं.
लेकिन आज उद्योग जगत ऐसी शिकायत कर ही नहीं सकता कि उसकी फाइलें अटकी हुई हैं. सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय की देखरेख में यह सुनिश्चित किया गया है कि ऐसी तमाम परियोजनाओं के रास्ते में आनेवाली बाधाओं को दूर किया जाये. सरकारी बाधाएं दूर हो चुकी हैं. फिर भी ये परियोजनाएं रुकी हुई हैं. राष्ट्रीय स्तर पर निवेश में कोई वृद्धि नजर नहीं आ रही. आखिर क्यों?
कारण यह है कि खुद उद्योग जगत आगे बढ़ कर निवेश करने का हौसला नहीं जुटा रहा. अब उद्योग जगत चाहता है कि पहले सरकार खुद निवेश करके अर्थव्यवस्था की गाड़ी को तेज करे, और जब यह गाड़ी सरपट दौड़ने लगेगी, तो वह उस पर सवार हो जायेगा. उद्योग संगठन दलीलें देने में लगे हैं कि सरकार निवेश के चक्र को तेज करने के लिए पहल करे, क्योंकि निजी उद्योग अभी ऐसा करने की हालत में नहीं हैं.
उद्योग जगत खुद निवेश की पहल नहीं करके और इसकी जिम्मेवारी सरकार पर डाल कर अपने जोखिम को घटाना चाहता है. वह रुकी हुई गाड़ी को खुद धक्का नहीं लगाना चाहता, जब गाड़ी चालू हो जाये तो उस पर सवार होना चाहता है. उद्योग जगत को अपनी व्यावसायिक रणनीतियां बनाने का पूरा हक है. कोई सरकार किसी उद्योग समूह पर यह दबाव नहीं डाल सकती कि वह कोई नयी फैक्ट्री लगाये ही.
लेकिन सरकारी पहल से निवेश चक्र तेज होने का इंतजार करके उद्योग जगत मौका गंवा देने का जोखिम उठा रहा है. अगर अब भी उद्योग जगत ने निवेश का रास्ता नहीं चुना और सरकारी मशीनरी अपनी ओर से निवेश चक्र को तेज नहीं कर पायी, तो उद्योग जगत के दोनों हाथ खाली रह जायेंगे. आनेवाले हफ्तों में मोदी सरकार की सालभर की उपलब्धियों के प्रशस्ति पत्र और नाकामियों के आरोप-पत्र दोनों ही सामने आयेंगे. टेलीकॉम स्पेक्ट्रम और कोयला खानों की सफल नीलामी को मोदी सरकार ने अपनी बड़ी सफलता के रूप में चिह्न्ति किया है, जो एक हद तक सही भी है.
बेशक यह तर्क दिया जा सकता है कि यह सब तो सुप्रीम कोर्ट के कानूनी आदेशों के तहत हुआ, लेकिन उन आदेशों को शब्द और भावना के साथ ठीक तरीके से लागू करने में जो तत्परता मोदी सरकार ने दिखायी है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
लेकिन जनता पर सीधा असर डालनेवाला मसला महंगाई पर अंकुश लगाने का है. बेशक आंकड़ों में महंगाई नियंत्रण में दिख रही है, मगर जनता को उसकी दाल-रोटी में राहत नहीं मिली है.
एक बार फिर दालों की कीमतें 100 रुपये प्रति किलो के ऊपर जाने लगी हैं. कुछ महीनों पहले जाड़े के समय में सब्जियों के दाम अचानक उछल गये थे, जबकि उस समय दाम नीचे होने चाहिए थे. सरकार को इस मामले में सचेत होना पड़ेगा, क्योंकि यह ऐसा संवेदनशील मसला है, जो कभी भी अचानक उसके प्रति लोगों की सारी सहानुभूति खत्म कर सकता है.

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