भारत में गुरुओं का काफी सम्मान रहा है. इन्हें ईश्वर तुल्य माना गया है. विडंबना ही है कि गुरु शब्द अपनी अहमियत खो रहा है और इसकी जगह शिक्षक ने ले ली है. गुरु का शाब्दिक अर्थ है अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करनेवाला, पर अब स्थिति विपरीत है और नयी परिभाषा है शिक्षा देनेवाला. यानी बना-बनाया सिलेबस पूरा करानेवाला.
गुरु का काम है ज्ञान में वृद्धि करना, न कि परीक्षा पास करने का हथकंडा बताना. गुरु अपने में आदर्श की मूर्ति होते हैं. उनके हर कार्य-कलाप से श्रेष्ठता और निर्मलता झलकनी चाहिए. बाजारवादी सभ्यता ने गुरुओं को भी बाजारू बना दिया है और वे भी कमाई को ही सर्वोपरि मानने लगे हैं. बहरहाल बहुप्रचलित शिक्षक शब्द पर ऐतराज जताने से भी अब कुछ होने से रहा और इसे अब वृत्तिगत मान लेना चाहिए, पर आचरण और व्यक्तित्व से गुरु ही बनना चाहिए. अभिभावकों और विद्यार्थियों को शिक्षकों से यही उम्मीद करनी चाहिए कि वे गुरु वर बने रहें, ताकि शिक्षक किसी दबाव या वृत्तिगत मांग के कारण अपने सिद्धांतों से समझौता न करें.
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एकमात्र ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने राष्ट्रपति के देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित करके अपनी ओर से पूरे शिक्षक वर्ग को सम्मान दिलाया. यह उनके इस विचार को दर्शाता है कि वे शिक्षक बने रहने में कितना गौरवान्वित महसूस करते थे. आज के शिक्षकों को भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए, ताकि समाज आज भी शिक्षकों को उसी सम्मान की नजर से देखे. शिक्षक सामाजिक संरचना के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ हैं. वे पीढ़ियां तैयार करते हैं. वे अच्छे नागरिक तैयार करने के लिए जिम्मेदार हैं. अत: शिक्षकों को अपने दायित्व के अनुकूल बरताव करना चाहिए, ताकि राष्ट्रनिर्माण में सहयोग कर सकें.
मनोज आजिज, जमशेदपुर