।।रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का लेखन-प्रकाशन जवाहरलाल नेहरू के समय हुआ. इसकी 50वीं वर्षगांठ उस समय मनायी जा रही है, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू और वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में कहीं से कोई भी साम्य नहीं है. नेहरू कल्याणकारी राज्य, मिश्रित अर्थव्यवस्था, गुटनिरपेक्षता, पब्लिक सेक्टर को महत्व देते थे. मनमोहन सिंह के यहां कॉरपोरेट, नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था, अमेरिका और निजी उपक्रम महत्वपूर्ण है.
नेहरू की एक इतिहास-दृष्टि है. मनमोहन सिंह की बाजार-दृष्टि है. नेहरू के समय भारतीय लोकतंत्र आज की तरह रुग्ण, अशक्त और दिखावटी नहीं था. नेहरू गांधी के शिष्य थे, अर्थशास्त्री नहीं थे. नेहरू ने ‘आधुनिक भारत’ की अपनी कल्पना की. मनमोहन सिंह उत्तर आधुनिक दौर के हैं. नेहरू के समय नेताओं का जनता से संवाद था. मनमोहन सिंह का मौन परेशान करता है. नेहरू के समय आर्थिक असमानता कम थी. मनमोहन सिंह के समय यह बढ़ी है.
दो प्रधानमंत्रियों के बीच का यह अंतर लगभग 50 वर्षो के भारत का अंतर है. गजानन माधव मुक्तिबोध (13.11.1917-11.9.1964) की कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ के प्रकाशन (कल्पना, नवंबर 1964) की अर्धशती कई मायनों में उल्लेखनीय है. दूसरे आम चुनाव और द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1957) के समय से मुक्तिबोध ने इसे लिखना शुरू किया और पांच वर्ष बाद 1962 में इसे पूरा किया. ‘अंधेरे में’ कविता के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक पाठ पर आज नये सिरे से विचार की आवश्यकता है. मंगलेश डबराल ने अभी इसे ‘भविष्य की ओर जाती कविता’ (पहल, जुलाई 2013) कहा है. स्वतंत्र भारत में दस वर्ष बाद ही मुक्तिबोध ने इस कविता को लिखना क्यों आरंभ किया? उस समय अंधकार आज की तरह घना और व्यापक नहीं था. जोश मलीहाबादी ने 1948 में ‘मातमे-आजादी’ कविता लिखी थी. इस कविता में उन्होंने लिखा था- ‘शैतान एक रात में इनसान बन गये, जितने नमकहराम थे कप्तान बन गये.’ नेहरू के प्रिय कवि ‘दिनकर’ ने 1953 में ‘समर शेष है’ कविता लिखी थी. 1947 और 1957 के दस वर्ष में आजादी की असलियत को लेकर अनेक कविताएं लिखी गयीं. मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ लोकतंत्र के अंधेरे पर रोशनी डालती है. कविता में जो फैंटेसी है, वह आज का यथार्थ है. फैंटेसी का यथार्थ बन जाना बड़ी घटना है.
कवि की चिंता सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक है. यह आगाह और सावधान करनेवाली कविता है. आज के अंधेरे में ‘अंधेरे में’ का बहुआयामी पाठ जरूरी है. मंगलेश इस कविता को ‘तिलिस्मी सिनेमाई तकनीक’ से जोड़ते हुए जापानी फिल्मकार अकीरो कुरोसावा की फिल्म ‘राशोमोन’ की याद दिलाते हैं, जब कैमरा पहली बार जंगल में प्रवेश करता है. उन्होंने ‘अंधेरे में’ को ‘हमारे समाज और राजनीति का राशोमोन’ कहा है.
मुक्तिबोध की यह लंबी कविता हमें निरंतर झकझोरती, परेशान और उद्वेलित करती है. 50 वर्ष बाद के भारत में यह अंधेरा घटा है या बढ़ा है? क्या 1957 से या 1947 की आजादी से आज तक के भारत का पाठ इस कविता के जरिये नहीं किया जा सकता? कविता में गांधी सर्दी में बोरे को ओढ़े, अपने हाथ-पैर समेटे कांपते और हिलते दिखाई देते हैं-’अरे वह मुख, वे गांधीजी!/ इस तरह पंगु!/ आश्चर्य’. कवि को (काव्य-नायक को) तॉलस्तॉय भी दिखायी देते हैं-’सितारों के बीच-बीच/ घूमते व रुकते/ पृथ्वी को देखते’. कविता का ‘मैं’ दो व्यक्ति-चरित्रों में विभक्त है. यह विभक्त मध्य वर्ग और भारत भी है. काव्य-नायक ‘मैं’, और उसके प्रतिरूप ‘वह’ को ‘आत्म-निर्वासन’ के रूप में देखा गया है, जिसे भारतीय स्वतंत्रता और भारतीय लोकतंत्र के रूप में भी देखा जाना चाहिए. मुक्तिबोध ने 1957 से ‘अंधेरे में’ कविता लिखना आरंभ किया था और जैसा कि अभी महावीर त्यागी के नेहरू को लिखे पत्र के प्रकाशन से यह स्पष्ट हुआ है कि वे इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने का विरोध कर रहे थे. इसी वर्ष केरल में वाम सरकार बनी थी, जिसे इंदिरा गांधी ने बाद में बने रहने नहीं दिया.
यहां यह उल्लेख जरूरी कि इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लागू किया था. ‘अंधेरे में’ कविता का आरंभ जिस ‘तिलिस्मी खोह’ से होता है, वह सामान्य नहीं है. कविता में ‘नुकीली नाक और भव्य ललाट वाला मनुष्य’ भारतीय स्वतंत्रता है, जो ‘फटे हुए वस्त्र पहने’ है और जिसके ‘वक्ष पर बड़ा-सा घाव’ है. कविता में मध्यवर्गीय कायरता और अकर्मण्यता स्वतंत्र भारत में मध्यवर्ग के बदले रूपों-सरोकारों के कारण है. ‘अंधेरे में’ कविता स्वतंत्र भारत का एक दस्तावेज है. इसमें मध्यवर्ग की तीखी आलोचना है-’ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया!/..बहुत-बहुत ज्यादा लिया/ दिया बहुत-बहुत कम/ मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम!’
आज देश की चिंता किसे है? मध्यवर्ग अपने ही ख्यालों में डूबा हुआ है. ‘अंधेरे में’ कविता में ‘आततायी सत्ता’ है, रात के ‘प्रोसेशन’ में ‘कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल के साथ सेनापति सेनाध्यक्ष’ हैं और उनके साथ हैं कई ‘प्रतिष्ठित पत्रकार. कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण/ मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान.’ इस जुलूस में ‘शहर का हत्यारा कुख्यात / डोमाजी उस्ताद’ भी है. आज के भारत में ये सब दिन के उजाले में हैं, अपराधी संसद में हैं. काव्य-नायक का प्रतिरूप एक कलाकार के रूप में भी है, जो शासक-वर्ग के हाथों मारा जाता है. ‘अंधेरे में’ कविता 50 वर्ष पहले जितनी प्रासंगिक नहीं थी, उससे कहीं अधिक आज है. इसी कविता में मुक्तिबोध ने ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने की बात कही थी और मठों और गढ़ों को तोड़ना जरूरी बताया था. आज कई मठ और गढ़ हैं. अभिव्यक्ति पर एक प्रकार से पाबंदी है. जो असहमत है, वह विरोधी मान लिया जाता है. राज्य सत्ता पहले से अधिक ‘आततायी’ हुई है. यह प्रकाश के पक्ष की कविता है. आज के भारत में कल के भारत से कहीं अधिक मौन है-’सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्/ चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं.’ कविता में जो सत्य से सत्ता का युद्ध है, वह आज भी जारी है.
मुक्तिबोध ने वर्तमान समाज के न चलने और पूंजी से जड़े हुए हृदय के नहीं बदलने की बात कही थी. वे पूंजीवाद के विरोधी थे. आज भारत वैश्विक पूंजीवाद और इजारेदार पूंजीवाद के साथ है. ‘अंधेरे में’ कविता के पुनर्पाठ के जरिये आज के भारत का एक वास्तविक-मुकम्मल पाठ किया जा सकता है.
कविता में शिशु आगमन है. मुक्तिबोध ‘उत्थानशील शक्तियों’ के साथ हैं. ये शक्तियां क्रांति के लिए सन्नद्ध हैं. कविता में गांधी से प्राप्त शिशु आज लगभग 50 वर्ष का हो चुका है. यह कविता क्रांति की संभावना में विश्वास करती है और जो भी आज की व्यवस्था से असंतुष्ट हैं, उनके लिए इस कविता का बार-बार पाठ ही नहीं, इस पर चर्चा और आयोजन बेहद जरूरी है.