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अफगानिस्तान में चीन का चक्रव्यूह

ईरान और मध्य एशिया के मुहाने पर बैठा अफगानिस्तान एक बार चीनी प्रभाव और उसके ‘सिल्क रूट’ में आ गया, तो अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत का गंठजोड़ इस इलाके में शह और मात के खेल में उलझ कर रह जायेगा. अफगानिस्तान में ऐसा क्या हुआ कि वहां के राष्ट्रपति अशरफ गनी अहमदजई ने भारत […]

ईरान और मध्य एशिया के मुहाने पर बैठा अफगानिस्तान एक बार चीनी प्रभाव और उसके ‘सिल्क रूट’ में आ गया, तो अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत का गंठजोड़ इस इलाके में शह और मात के खेल में उलझ कर रह जायेगा.
अफगानिस्तान में ऐसा क्या हुआ कि वहां के राष्ट्रपति अशरफ गनी अहमदजई ने भारत के सैन्य सहयोग पर रोक लगा दी! अफगानिस्तान में भारत को 40 करोड़ डॉलर की लागत से ‘टैंक, एयरक्राफ्ट रिफर्बिशिंग प्लांट’ लगाना था, जिसमें वहां कबाड़ में परिवर्तित हो रहे टैंक, हेलीकॉप्टर और युद्धक विमानों को नये जैसा कर देना था, लेकिन राष्ट्रपति को यह रास नहीं आ रहा है. उसे स्थगित किये जाने का कोई तर्क भी नहीं दिया गया है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की 10 सितंबर, 2014 की काबुल यात्र के बाद कयास लगाया जा रहा था कि मोदीजी के शासनकाल में भारत, अफगानिस्तान और करीब आयेंगे.
अफगानिस्तान को अब तक साढ़े बारह अरब डॉलर के सहयोग के बावजूद इस देश में भारत के हित सुरक्षित नहीं दिखते. 2008-2009 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर दो बार हमले हुए, जिनमें 75 लोग मारे गये थे. 10 फरवरी, 2010 को काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर एक और हमला हुआ, जिसमें दस भारतीय समेत 18 लोग मारे गये. इसके तीन साल बाद, 4 अगस्त, 2013 को जलालाबाद स्थित भारतीय कौंसिलावास पर हमला हुआ था, जिसमें 12 लोग मारे गये थे. मोदीजी के शपथ के चार दिन पहले 22 मई, 2014 को भी हेरात स्थित भारतीय कौंसिलावास पर हमला हुआ था, जवाबी कार्रवाई में चार आतंकी मारे गये थे. दिलचस्प है कि अफगानिस्तान के अलावा दुनिया के किसी भी हिस्से में भारतीय दूतावास पर हमला नहीं हुआ है. इन पांच हमलों के बाद तो यह निष्कर्ष निकाल ही लेना चाहिए कि पूरी दुनिया में भारतीय मिशन कहीं असुरक्षित है, तो वह अफगानिस्तान है. इसलिए अफगानिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उसे हल्के में नहीं लें.
काबुल स्थित पाक दूतावास पर दो बार (1995 और 2003 में) हमले हो चुके हैं, लेकिन चीनी कूटनीतिक मिशन अब तक महफूज है. अफगानिस्तान के ‘आवनक कॉपर माइन’ और ‘आमू दरिया बेसिन’ जैसी तेल दोहन परियोजनाओं में काम कर रहे किसी चीनी नागरिकों का बाल बांका नहीं हुआ है.
सुषमा स्वराज सितंबर 2014 में काबुल इस आरजू के साथ गयी थीं कि राष्ट्रपति अहमदजई नयी दिल्ली आएंगे. हम आरजू और इंतजार में उलङो रहे, उधर अफगान राष्ट्रपति 28 अक्तूबर, 2014 को चीनी नेताओं से मिलने पेइचिंग रवाना हो गये. ऐसा क्या था कि राष्ट्रपति अहमदजई ने अपनी पहली विदेश यात्र चीन से शुरू की, और नयी दिल्ली के बदले पेइचिंग जाना जरूरी समझा? इसका जवाब इससे मिल जाता है कि तालिबान से तालमेल बिठाने के लिए अहमदजई चीनी नेताओं से सहयोग चाहते थे. सुन कर थोड़ा अटपटा सा लगता है कि शिनचियांग में उईगुर अतिवादियों और तुर्किस्तान इसलामिक पार्टी से परेशान चीन, तालिबान से कैसे तालमेल बिठाने लगा! दरअसल, चीनी नेताओं ने उईगुर अतिवादियों को ठिकाने लगाने के लिए तालिबान का ठीक वैसे ही उपयोग किया है, जैसे जहर को मारने के लिए जहर का इस्तेमाल किया जाता है. सीआइए व जर्मन खुफिया एजेंसी ‘बीएनडी’ चकित हैं कि जिस तालिबान को ठंडा करने और बातचीत की मेज पर लाने के लिए पश्चिमी देशों ने दोहा की राजधानी कतर में कार्यालय खोला, उसी तालिबान के नेता अब चीन की गोद में जा बैठे हैं.
पश्चिमी ताकत़ों को शक है कि इस कार्य में पाक सेना के जनरलों, या आइएसआइ, की मदद ली गयी है. यह जर्मन खुफिया एजेंसी बीएनडी की जानकारी में है कि बीते साल काबुल स्थित चीनी दूत सुन यूशी पाक अधिकारियों की निगरानी में पेशावर गये थे, और वहां उनकी मुलाकात तालिबान नेताओं से करायी गयी थी. इससे पहले कुछ तालिबान कमांडर चीन की यात्र पर कब-कब जा चुके हैं और इसलामाबाद स्थित चीनी राजदूत तालिबान नेता मुल्ला उमर से कब मिले, इसकी पुष्टि में पश्चिमी एजेंसियां लगी हुई हैं. एक खबर यह भी थी कि नवंबर 2014 में कतर में तैनात तालिबान नेता कारी दीन मोहम्मद के साथ दो लोग चीन गये थे.
बाहर से देखने में यही लग रहा है, मानो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ‘पीस मेकर’ के अवतार में प्रकट हो रहे हैं. 6 जनवरी, 2015 की रोजाना प्रेस ब्रीफिंग में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता होंग लेई ने तालिबान नेताओं से मुलाकात पर पूछे सवाल को दरकिनार करते हुए कहा कि चीन अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया में मदद करता रहेगा. पर, सच यह है कि चीन अफगानिस्तान में तोप और तलवार चलाये बिना वह काम करने जा रहा, जिसमें अमेरिका और नाटो सेनाएं विफल रही हैं. चीन के इस ‘ग्रेट गेम’ में रूस व पाकिस्तान शामिल हैं. ईरान और मध्य एशिया के मुहाने पर बैठा यह मुल्क एक बार चीनी प्रभाव और उसके ‘सिल्क रूट’ में आ गया, तो अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत का गंठजोड़ इस इलाके में शह और मात के खेल में उलझ कर रह जायेगा.
तालिबान नेता जिस एक और बड़ी वजह से चीन की गोद में बैठना चाहते हैं, वह है इलाके में इसलामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आइएसआइएस) के विस्तार का खौफ. अफगानिस्तान सीमा के कबीलाई इलाके में आइएसआइएस सदस्यों का बढ़ना एक नये खतरे का आगाज कर रहा है, जिससे यदि भारत आंख मूंदता है, तो यह एक बड़ी चूक होगी. आइएसआइएस के समर्थक क्यों कश्मीर में दिख रहे हैं, इस प्रश्न पर केंद्र सरकार गंभीर नहीं लग रही. यह खतरे की घंटी है.
अफगानिस्तान में क्या करना है, इसे लेकर भी हमारे रणनीतिकार छत्तीस की दिशा में बैठे मिल जाएंगे. काबुल में कभी तैनात रहे मिल्ट्री इंटेलिजेंस के अवकाश प्राप्त डीजी, लेफ्टिनेंट जनरल रवि साहनी का जोर इस पर रहा है कि तालिबान से रक्षा के लिए अफगानिस्तान को आर्टिलरी ब्रिगेड और आम्र्ड ब्रिगेड से लैस करना होगा. करजई के रहते 750 मिल्ट्री अफसरों को भारत में ट्रेनिंग दी गयी. इसके बरक्स ‘रॉ’ यह मानती रही कि तालिबान से हमें दोस्ती साधनी चाहिए. शायद इस वजह से ही नवंबर 2013 में तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल सलाम जईफ को आमंत्रित किया गया था. जईफ मुल्ला उमर का सबसे करीबी रहा है, वह ‘ग्वांतानामो बे’ में भी कैद था. पाकिस्तान में पदस्थापित सीआइए के एक पूर्व अधिकारी राबर्ट ग्रेनियर, तब के वित्त मंत्री पी चिदंबरम और अब्दुल जईफ से गोवा में मिले थे. उस मुलाकात को भाजपा की नेता निर्मला सीतारमण ने ट्वीट के जरिये तूल दिया था. आज हालत यह है कि जिन तालिबान नेताओं को भारत के घेरे में होना चाहिए था, वे चीन की गोद में जा बैठे हैं. क्या यह ठीक हुआ!
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
pushpr1@rediffmail.com

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