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हैदर के बहाने कश्मीर की कुछ बात

।। राजेंद्र तिवारी ।। (कॉरपोरेट एडिटर, प्रभात खबर) आजकल विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर खासी चर्चा में है. बशारत पीर की कहानी पर आधारित इस फिल्म में कश्मीर के हालात को दर्शाया गया है. बशारत पीर की एक किताब भी आयी थी कर्फ्यूड नाइट्स. 2010 में प्रकाशित इस किताब में कश्मीर की कहानियां हैं. इन […]

।। राजेंद्र तिवारी ।।

(कॉरपोरेट एडिटर, प्रभात खबर)

आजकल विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर खासी चर्चा में है. बशारत पीर की कहानी पर आधारित इस फिल्म में कश्मीर के हालात को दर्शाया गया है. बशारत पीर की एक किताब भी आयी थी कर्फ्यूड नाइट्स. 2010 में प्रकाशित इस किताब में कश्मीर की कहानियां हैं. इन कहानियों से वहां की जिंदगी की कशमकश महसूस की जा सकती है. लेकिन रावी के इस पार या कहिए पीरपंजाल के इस पार रहनेवाले हम हिंदुस्तानियों को इन कहानियों को समझने की जरूरत ही महसूस नहीं होती. हमने एक सच रच लिया है और जो कुछ इस सच के अनुरूप नहीं होता, हमें देशविरोधी लगता है. मैंने यह फिल्म नहीं देखी है, इसलिए फिल्म में क्या दिखाया गया है, इस पर बात करने में सक्षम नहीं हूं. पर इतना तो निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि फिल्म में जो भी दिखाया गया होगा, कश्मीर के हालात उससे भी बदतर ही होंगे.

सबसे पहले पिछले साल प्रकाशित किताब आफ ऑक्युपैशन एंड रेसिस्टेंस से एक किस्सा. फहद शाह द्वारा संपादित कश्मीरी लेखन के इस संग्रह में अतहर जिया के पीस हम को उन की मौत की सर्टिफिकेट मिल गयी, अब दुआ करो वो जिंदा हों से लिया गया यह किस्सा हर संवेदनशील इंसान को हिला देगा- वर्ष 2011 के पतझड़ का समय. श्रीनगर की प्रसिद्ध पोलोव्यू रोड पर स्थित बंकर के दूसरी तरफ चिनार के पेड़ के नीचे खड़ी फतेह जान.

चिनार के लाल-लाल पत्ते हर तरफ बिखरे पड़े थे. वह मुझसे (इस पीस के लेखक से) बोली, हमको उनकी मौत का सर्टिफिकेट मिल गया, अब दुआ करो वो हों. यानी वह औरत जिसकी मौत का सर्टिफिकेट लिये खड़ी थी, उसी की जिंदगी की दुआ मांग रही थी. यह व्यक्ति उसका पति नसीब खान है, जो 2002 में गायब हो गया था. फतेह जान की जिंदगी भी तमाम कश्मीरी औरतों की जिंदगी की तरह ही अजीब सी उलटबांसी बन कर रह गयी थी.

फतेह को अर्धविधवा कहा जाता है. कश्मीर में अर्धविधवा उन औरतों को कहा जाता है, जिनके पति गायब हो गये हैं. इस गायब दुनिया में पतियों के जिंदा होने और सूबे की किसी जेल में सड़ रहे होने की संभावना उतनी ही है जितनी कि उनके किसी अनाम कब्र में होने या फिर शव को जंगल या नदी में फेंक दिये जाने की. फतेह उतनी भाग्यशाली नहीं है कि उसे अपने पति का शव मिल जाता या फिर उस जेल का पता चल जाता जहां नसीब खान हो सकते हैं.

फतेह वहां से एक बाबा (फकीर) से मिलने चली गयी, जो उसके पति के सकुशल लौटने की दुआ करेंगे. बाबा की दी हुई ताबीज उसी झोले में रखती हुई नसीब की कल्पना कीजिए, जिसमें उसने मौत का सर्टिफिकेट रख रखा है. वह अपने घर जायेगी जहां उसके पांच बच्चे उसका इंतजार कर रहे होंगे. सबसे छोटी जैना, जिसे अपने पिता की सूरत कतई याद नहीं, फिर अपने पिता के वापस लौट आने का सपना देखेगी. वह सपने से जगेगी और चीखने लगेगी. इसके बाद पूरे परिवार की आंखें आंसुओं से भर उठेंगी और फिर कोई नहीं सोयेगा. फतेह आंसू बहाते हुए नसीब को गायब कर देने के लिए हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी फौज को कोसते-कोसते सुबह कर देगी.

बिलकुल वैसे ही, जैसे यदि हमारे साथ ऐसा हो तो हम भी सरकार और पुलिस को कोसते. नसीब खान को 2002 में उस समय फौज अपने ले गयी थी, जब वह दोपहर की नींद ले रहा था. कश्मीर में ऐसा होता रहता है. रात-बिरात कभी भी किसी का दरवाजा खटखटाकर आतंकियों के बारे में पूछताछ की जा सकती है. इतना ही नहीं, घर पर तोड़-फोड़, लोगों के साथ मारपीट और महिलाओं के साथ बदसलूकी, कुछ भी असामान्य नहीं है. फतेह जान का घर सड़क किनारे है, लिहाजा उसका घर तो कई बार इंट्रोगेशन सेंटर ही बन जाता. जब नसीब ले जाया गया, तो उसने सोचा कि रुटीन पूछताछ होगी. इसके बाद फतेह ने आर्मी कैंपों के चक्कर लगाने शुरू किये, जहां से उसे यही जवाब मिलता कि नसीब यहां नहीं है. पुलिस ने एफआइआर लिखने से मना कर दिया.

अब एक कहानी और. यह कहानी है तो अलग, लेकिन ऊपर वाली कहानी को समझने में मदद करती है. इसे एक बार मैं अपने कॉलम में लिख चुका हूं, लेकिन फिर से यहां दे रहा हूं- 2002 की बात है. पतझड़ का समय था. हम (मैं और मेरे दो साथी गुप्ता व शर्मा और ड्राइवर सोनू) श्रीनगर से सोनमर्ग जा रहे थे. कंगन कस्बे से आगे बढ़े. आसमान पर धुंध थी, बादल थे. हमलोगों को भूख लग रही थी.

सड़क किनारे तीन-चार दुकानें और नीचे की तरफ एक गांव दिखाई दिया. हम रुक गये कि शायद यहां खाने को कुछ मिल जाये. शाम के 3 बज रहे थे. थोड़ी दूर पर सड़क किनारे एक शेड था, जिसमें बनीं दुकानें बंद थीं. वहां दो फौजी मुस्तैदी से खड़े थे. चलो इन फौजियों से बात की जाये, यह सोच कर हम शेड के नीचे पहुंच गये. उनमें से एक हरियाणा का रहनेवाला था और दूसरा यूपी का.

फौजी हमसे मिलकर खुश हुए. हमलोग भी मूल रूप से यूपी के जो थे. हम कश्मीर के बारे में उसकी समझ जानने के लिए सवाल करने लगे. तभी दूर से 12-13 साल की एक बच्ची सिर पर लकडि़यों का गट्ठर उठाये आती दिखी. उसके साथ 8-9 साल का एक बच्चा भी था. फौजियों ने भी उन्हें देखा, फिर गुप्ताजी से पूछा कि आपने शादी क्यों नहीं की अब तक? गुप्ताजी कोई जवाब देते, उससे पहले ही जवान ने कहा कि लड़की पसंद कर लीजिए और ठीक लगे तो शादी कर लीजिए. तब तक गट्ठर लिये वह बच्ची और पास आ चुकी थी.

बच्ची का चेहरा भावविहीन था. वह तेजी से चल रही थी दूसरी तरफ देखते हुए. जैसे वह जल्दी से उस जगह को पार कर लेना चाह रही हो. जवान आगे बढ़ा और बच्ची का हाथ पकड़ कर बोला, सर इसे ले जाइए उधर और पसंद कर लीजिए. बच्ची कांप रही थी और उसके साथ का बालक डरी नजरों से कभी हमें देखता, कभी उस बच्ची को, जो शायद उसकी बड़ी बहन थी. हमने जवान को डांटा कि ये क्या बदतमीजी है और बच्ची को छोड़ने को कहा. जवान ने हाथ तो छोड़ दिया, पर हमें समझाने लगा कि डरते क्यों हैं सर, यहां कोई कुछ बोल नहीं सकता.

आप खुद सोचिये कि फिल्म को सेंसर कर देने और जमीनी हकीकत से मुंह फेर लेने से हालात बदलेंगे या कश्मीर का दर्द समझ कर उसे दूर करने से? 1990 के दशक की शुरुआत में छपी किताब द वुंडेड वैली में प्रख्यात पत्रकार अजित भट्टाचार्जी ने जो सवाल उठाया था, आज भी यदि हम उसका जवाब ईमानदारी से तलाशेंगे, तभी रास्ता निकलेगा, फिल्म सेंसर करने और कश्मीरियों को गाली देने से नहीं. भट्टाचार्जी का सवाल है कि जो कश्मीरी 1948 में पाकिस्तान प्रायोजित कबायली हमले के समय भारत और भारतीय फौज का जी जान से साथ दे रहे थे, वे आज भारत विरोधी क्यों हो गये?

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