सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा को लग रहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के कोलेजियम प्रणाली को दोषपूर्ण बता कर एक तरह से न्यायपालिका को बदनाम करने का अभियान चलाया जा रहा है.
इस प्रणाली के आलोचकों को उनकी सलाह है कि न्यायपालिका से लोगों का भरोसा उठाने का काम मत कीजिए. एक याचिका की सुनवाई के दौरान एक खंडपीठ के प्रमुख के रूप में न्यायमूर्ति लोढ़ा का यह अफसोस उस वक्त सामने आया है जब नयी सरकार ने पिछली सरकार के समय से जारी कोशिश को गति देते हुए कोलेजियम प्रणाली को बदलने और न्यायपालिका में सुधार से जुड़े दो विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया है.
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस मुद्दे पर न्यायपालिका और विधायिका टकराव की मुद्रा में हैं. बहरहाल, कोई भी राय बनाने से पहले कुछ जरूरी बातों पर ध्यान देना होगा. एक, न्यायपालिका को स्वायत्त रखना लोकतंत्र में निहित शक्ति के बंटवारे के सिद्धांत के तहत एकदम सही है और यह आशंका स्वाभाविक है कि मौजूदा कोलेजियम प्रणाली को बदलने से जजों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप हो सकता है.
पर, दूसरी तरफ यह ध्यान में रखना चाहिए कि हाल में जजों के भ्रष्टाचार में लिप्त रहने के मामले भी उछले हैं. सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व न्यायाधीश मरकडेय काटजू ने तो यहां तक कह दिया है कि इलाहबाद उच्च न्यायालय में काम करते हुए उन्होंने वहां के कई न्यायाधीशों को भ्रष्ट पाया और शिकायत के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गयी. अगर न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध है, तो लोकतंत्र की विश्वसनीयता बहाल रखने के लिए न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का समाधान भी आवश्यक है. कोलेजियम प्रणाली में बदलाव से यह कहां तक हो सकेगा, यह अलग बहस का विषय है, परंतु नियुक्ति की प्रक्रिया अधिक-से-अधिक पारदर्शी होनी चाहिए. न्यायपालिका की स्वायत्तता के तर्क से कोलेजियम प्रणाली के जरिये इस प्रक्रिया को कुछ न्यायाधीशों के अधीन रखनेवाला भारत दुनिया में अकेला देश है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समुचित और सामयिक आकलन के जरिये मसले के बेहतर समाधान तक पहुंचने की जरूरत है.