उपेंद्र प्रसाद
आर्थिक मामलों के जानकार
आर्थिक सर्वे से पता चलता है कि अनाज के विपुल भंडार हमारे पास मौजूद हैं. देश का भुगतान संतुलन भी पहले से बेहतर है, यानी निर्यात और आयात के बीच की खाई पहले से कम चौड़ी है. ये तथ्य बताते हैं कि कम औद्योगिक विकास दर होने के बावजूद देश की आर्थिक दशा उतनी खराब नहीं है, जितनी खराब होने की बात मोदी सरकार ने शपथ ग्रहण के बाद की थी.
बजट के पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण एक तरह से वित्तमंत्री की वह दृष्टि होती है, जिसके तहत बजट तैयार किया जाता है. हम इस साल पेश आर्थिक सर्वे में वित्तमंत्री की दृष्टि को देख सकते हैं, लेकिन चूंकि यह नयी सरकार द्वारा तैयार पहला सर्वेक्षण है, इसलिए इसे पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान की आर्थिक उपलब्धियों पर नयी सरकार के एक श्वेत पत्र के रूप में भी देखा जाता रहा है. सवाल है कि इस सव्रेक्षण को देख कर हम पेश होनेवाले बजट के बारे में क्या अनुमान लगा सकते हैं?
सच कहा जाये, तो यह सर्वेक्षण कुछ बातें बताता है, जबकि अनेक महत्वपूर्ण बातों पर चुप है. नयी सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर जितनी साफगोई इसमें दिखायी जानी चाहिए थी, उतनी नहीं दिखायी गयी है. साफ है कि केंद्र सरकार अपनी आर्थिक नीतियों को लेकर अभी बहुत स्पष्ट नहीं है और यदि है भी तो वह खुल कर सामने नहीं आना चाहती है. यही कारण है कि यह आर्थिक सर्वेक्षण आंकड़ों के एकत्रीकरण से ज्यादा कुछ बन नहीं पाया है.
पिछले वित्तीय वर्ष में विकास दर 5 फीसदी से भी कम रही और सर्वे की उम्मीद है कि अगले साल यह 5.4 से 5.9 फीसदी तक रह सकती है. सवाल है कि ऐसी आशावादिता क्यों? पिछले वित्तीय वर्ष में उद्योग की विकास दर बहुत ही कम रही. उसके पहले के साल में यह एक फीसदी थी और पिछले साल तो आधा फीसदी से भी कम थी. हां, कृषि की विकास दर अच्छी रही और यह 4.7 फीसदी थी. सर्विस सेक्टर की विकास दर में भी कमी आयी थी.
अब मॉनसून के बारे में जो भविष्यवाणी की जा रही है, उसे देखते हुए कृषि के विकास की संभावना तो नहीं ही है, फिर विकास की और ऊंची दर पाना कहीं हमारे नीति-निर्माताओं का खयाली पुलाव तो नहीं है? यह सच है कि पिछले साल हुई बंपर खेती के कारण इस साल खराब मॉनसून के बावजूद खाद्यान्न संकट की समस्या नहीं है, क्योंकि हमारे गोदामों में काफी अनाज है. उसके कारण सरकार को कीमतों पर नियंत्रण बनाये रखने में सुविधा होगी, लेकिन इसके कारण विकास दर कैसे बढ़ जायेगी, यह समझ पाना कठिन है.
देश में आज सबसे ज्यादा खराब हालत उद्योगों की है. यह पिछले तीन-चार साल से कम विकास दर की शिकार हो गया है. जब दुनिया में मंदी चल रही थी, तो सरकार ने उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए बहुत छूट दी थी. अनेक छूट अभी नहीं हटाये गये हैं, उसके बावजूद इस मोरचे पर निराशा हाथ लग रही है. इसके बावजूद यदि सरकार बेहतर विकास को लेकर आशान्वित है, तो शायद इसका एक कारण यह हो सकता है कि उद्योगों के लिए वह कोई विशेष योजना लेकर आ रही है.
आर्थिक सर्वे से पता चलता है कि अनाज के विपुल भंडार हमारे पास मौजूद हैं. इससे यह भी पता चलता है कि देश का भुगतान संतुलन भी पहले से बेहतर है, यानी निर्यात और आयात के बीच की खाई पहले से कम चौड़ी है. ये दोनों तथ्य बताते हैं कि कम औद्योगिक विकास दर होने के बावजूद देश की आर्थिक दशा उतनी खराब नहीं है, जितनी खराब होने की बात मोदी सरकार ने शपथ ग्रहण के बाद की थी.
राजकोषीय घाटे की दशा से सरकारी खजाने की दशा का भी पता लगता है. आर्थिक सर्वेक्षण में इसके बारे में अद्यतन जानकारी नहीं दी जाती. बजट के साथ ही यह सामने आता है कि राजकोष के घाटे की क्या दशा है. लेकिन, अरुण जेटली ने सर्वे पेश करने के बाद बातचीत में वैसे ही कह डाला कि राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का साढ़े 4 फीसदी है.
शायद उनकी जुबान फिसल गयी थी और उन्होंने तुरंत यह भी कह डाला कि इसके बारे में पूरी जानकारी बजट पेपर के साथ मिलेगी. गौरतलब है कि अंतरिम बजट में पिछले साल के राजकोष के घाटे के 4.1 फीसदी रहने का अनुमान किया गया था, जिस पर किसी को विश्वास नहीं हुआ था. अधिकतर अर्थशास्त्रियों व आर्थिक विशेषज्ञों का मानना था कि राजकोष का घाटा 5 फीसदी से ऊपर होगा और यह 6 फीसदी तक भी जा सकता है. लेकिन, यदि यह आंकड़ा साढ़े 4 फीसदी का ही है, तब यह मानना पड़ेगा कि खजाना उतना खाली नहीं है, जितना सरकार बता रही थी. इसकी तुलना कीजिये 1991 की स्थिति से, जब राजकोषीय घाटा 6 फीसदी तक पहुंच गया था और विदेशी मुद्रा की हालत इतनी पतली थी कि सोना तक गिरवी रखना पड़ा था.
भुगतान संतुलन ज्यादा बिगड़ा नहीं होने के साथ-साथ विदेशी मुद्रा भंडार में भी पिछले वित्तीय वर्ष में वृद्धि देखी गयी है और समीक्षा में कहा गया है कि विदेशी कर्ज की स्थिति भी नाजुक नहीं है और उसका प्रबंधन करने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हो रही है. जब इन क्षेत्रों में स्थिति ठीक है, तो फिर पिछली सरकार के कार्यकाल में खराबी कहां थी? इस सवाल का जवाब जानने के लिए आर्थिक समीक्षा को विस्तार से पढ़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि सबको पता है कि असली समस्या कीमतों के मोरचे पर थी और वह भी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों के मोरचे पर. यह समस्या बेहतर खाद्यान्न उत्पादन के बावजूद थी. जाहिर है, हमारी वितरण व्यवस्था अथवा बाजार में कुछ ऐसी भयंकर खामियां आ गयी हैं, जिनसे कीमत तय करनेवाला मांग और पूर्ति का सिद्धांत गलत साबित हो जाता है.
खाद सब्सिडी पर सरकार ने चिंता जतायी है और उसे तर्कसंगत बनाने की बात की गयी है. तो क्या खाद पर से सब्सिडी हटाने की मंशा है? गरीबों को सीधे आय करवाने की भी बात समीक्षा में है, तो क्या सरकार आधार के आश्रय में जाना चाहती है? मनरेगा को श्रम की आपूर्ति में बाधक बताया गया है, तो क्या सरकार इसे समाप्त करने की ओर बढ़ रही है? इंधन की कीमत को बाजार के अनुरूप लाने की बात की गयी है, तो क्या सरकार बिजली, तेल और डीजल से सब्सिडी पूरी तरह हटाने की दिशा में बढ़ रही है? महंगाई को बहुत बड़ी चुनौती बतायी गयी है, तो फिर इंधन को सब्सिडीमुक्त कर सरकार महंगाई को कैसे रोक पायेगी? किसानों को भी सीधे आय करवाने की बात की गयी है? तो क्या सरकार उनको कैश देने के लिए आधार का सहारा लेगी. इन सब सवालों के जवाब शायद वित्त मंत्री के बजट भाषण में मिले.