पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
पिछले कुछ समय से हम हिंदुस्तानियों का ध्यान हिंदीभाषी राज्यों के कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में अटका रहा है और दूर-दराज देशों को चाहे वह महाशक्तियां ही क्यों ना हों, हमने बिसरा सा दिया है. विदेश में हो रही हलचल की ओर नजर लौटाना अब अधिक टाला नहीं जा सकता, क्योंकि देर-सवेर जो हलचल जारी है, उसका असर हम पर पड़े बगैर नहीं रह सकता.
बात पहले फ्रांस की. फ्रांस के नौजवान राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रां, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दो वर्ष भी पूरे नहीं किये हैं, बुरी तरह संकटग्रस्त हैं. राजधानी पेरिस में यलो जैकेट पहने आंदोलनकारियों ने धावा बोल दिया और पुलिस की बैरिकेडों को तोड़ पुलिसवालों से हाथापाई करने पर आमादा थे.
ये आंदोलनकारी अहिंसक सत्याग्रही नहीं पुलिस की लाठियों, आंसू गैस, पानी की तोपों और रबड़ की गोलियों से अपना बचाव करने के लिए पूरे बंदोबस्त किये थे. सर पर हेलमेट, मुंह पर नकाब और हाथों में जो हाथ लगा वह हथियार. भले ही इस आंदोलन का विस्फोट अचानक पेट्रोल के दाम में जरा-सी बढ़त के कारण हुआ, पर इसकी सुगबुगाहट बहुत पहले से महसूस की जा सकती थी.
यह रेखांकित करना जरूरी है कि यह संघर्ष साधन-संपन्न रईसों और देहाती अपेक्षाकृत विपन्न किसानों और मजदूरों के बीच की लड़ाई है. विडंबना यह है कि जर्मनी की तरह फ्रांस का शुमार खुशहाल और निरंतर तरक्की कर रही औद्योगिक शक्ति के रूप में होता है.
हम अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि फ्रांस या जर्मनी हो अथवा खुद अमेरिका, वहां का समाज भी दर्दनाक विषमताओं से पीड़ित है और वर्ग-संघर्ष का अंत सोवियत संघ में साम्यवाद की ‘निर्णायक पराजय’ के बाद समाप्त नहीं हुआ है. फ्रांस में फ्रांसीसी क्रांति के बाद से आज तक समता और स्वतंत्रता का स्वर राजनीति में मुखर होता रहा है और नेपोलियन द्वारा साम्राज्य की स्थापना के बाद भी यह प्रगतिशील क्रांतिकारी जुझारू तेवर कभी पूरी तरह नष्ट नहीं हो सका.
इसके अलावा यह बात भी ध्यान में रखने लायक है कि भले ही फ्रांस एक पूंजीवादी देश है, वहां के श्रमिक संगठन काफी शक्तिशाली हैं और राष्ट्रपति मैक्रां के निर्वाचन के पहले ही हड़तालों और बंद द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन कर चुके हैं. यहां एक और बेहद महत्वपूर्ण बात याद रखने की जरूरत है. फ्रांस में पेरिस और दूसरे कुछ बड़े शहर ही आर्थिक क्रिया-कलाप, राजनीतिक सत्ता और संस्कृति का केंद्र रहे हैं.
जो लोग वास्तव में फ्रांस के श्रेष्ठी वर्ग के सदस्य हैं, वे स्वयं इन घनी बस्तियों वाले शहरों में नहीं रहते, बल्कि महानगरों के बाहर उपनगरों में एेशो-आराम की जिंदगी बसर करते हैं. उन्हें न तो रोज-रोज अपने काम के सिलसिले में बाहर निकलने की जरूरत पड़ती है और न ही उन्हें प्रदूषण या शहरी अपराध का कष्ट भोगना पड़ता है.
दुष्कर जीवन तो उनका है, जो देहात में रहते हैं और जिन्हें रोजगार के लिए लंबा सफर प्रतिदिन तय करना पड़ता है और जिनके लिए शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाएं शहरों जैसी सुलभ नहीं हैं. यह सच है कि औद्याेगिक उत्पादन बढ़ा है, किंतु अत्याधुनिक उत्पादन प्रणाली कंप्यूटरों और रोबोटों पर निर्भर है. अतः पुराने जमाने के कुशल कारीगर बेरोजगार हो रहे हैं. इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि कम मजदूरी पर काम करने के लिए तैयार शरणार्थियों के कारण भी फ्रांस के श्रमिक वर्ग में असंतोष है.
एक और बात ने फ्रांस के कष्टों को बढ़ाया है. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने जब से अमेरिका की अर्थव्यवस्था को बाहरी आयात के लिए प्रतिबंधित किया है, तब से पूरे यूरोप में आर्थिक संकट गहराने लगा है. इस तरह से देखें, तो फ्रांस में जो आंदोलन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा, वह उस गहरे जोखिम का एक विस्फोटक रूप लेना है, जिसकी अनदेखी शहरी नेता फ्रांस में ही नहीं, दुनियाभर में बरसों से करते आ रहे हैं.
कई विद्वान फ्रांस की घटनाओं में भारत की राजनीतिक-आर्थिक चुनौतियों का प्रतिबिंब देख रहे हैं. शहरों द्वारा देहात की उपेक्षा किसानों के संकट निवारण में लापरवाही और देहात को पिछड़ेपन का पर्याय समझना, यह सब ऐसी बातें हैं, जिनमें वास्तव में काफी समानता नजर आती है.
हाल-फिलहाल राष्ट्रपति मैक्रां ने यह मान लिया है कि वह तेलजनित ईंधन के दाम नहीं बढ़ायेंगे, पर इससे तात्कालिक राहत ही उन्हें मिल सकी है. आंदोलनकारी यह आरोप लगातार लगा रहे हैं कि मैक्रां की सरकार अमीरों की सरकार है.
यही आरोप ट्रंप से लेकर थेरेसा मे और नरेंद्र मोदी पर भी लगाया जाता रहा है. विश्व व्यापार संगठन के महत्वपूर्ण बनने के साथ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का एकीकरण तेजी से हुआ है और इसके साथ ही ऐसे करिश्माई ताकतवर नेताओं का उभार भी जिन्हें बड़े-बड़े पूंजीपतियाें और बहुराष्ट्रीय निगमों का समर्थन प्राप्त है. कुछ समय के लिए उग्रराष्ट्रवाद को प्रोत्साहित कर आंतरिक समस्याओं से ध्यान बटाया जा सकता है, किंतु देर-सवेर वंचितों और हाशिये पर रहनेवाले बहुसंख्यक नागरिकों के आक्रोश का सामना करना ही पड़ता है.
मैक्रां जैसी ही स्थिति से ब्रिटेन की थेरेसा मे और अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी है. अमेरिका में प्रवेश कर रहे शरणार्थियों को जबरन पीछे धकेल अमानवीय परिस्थितियों में शरणार्थी कैंपों में रखने की उनकी नीति की दुनियाभर में निंदा होती रही है. हाल ही में ग्वाटेमाला से पहुंची सात वर्ष की एक लड़की की मृत्यु के बाद खुदगर्ज पंूजीवादी रईसों का निर्मम और क्रूर चेहरा एक बार फिर बेनकाब हो गया है.
फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में अपनी गलतियों के लिए दूसरों पर दोषारोपण और शरणार्थियों को हर अपराध या कट्टरपंथी के लिए जिम्मेदार ठहराना आसान है. पर हकीकत यह है कि खुशहाल और ताकतवर देशों के नेताओं के लिए यह बात स्वीकार करना परमावश्यक है कि उनकी समृद्धि और शक्ति का स्रोत एशियाई-अफ्रीकी देशों का शोषण ही रही है. वह अपने को दूसरों से अधिक प्रतिभाशाली या परिश्रमी नहीं मान सकते.
जब तक आप इस नस्लवादी अहंकार से छुटकारा नहीं पाते, तब तक आप सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा का शंखनाद करने के अधिकारी नहीं हैं. बड़ी बात यह समझने की है कि मानवाधिकारों की तरह सामाजिक न्याय भी सार्वभौमिक मुद्दा है और देहात तथा शहरों का संघर्ष विश्वव्यापी है.
