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अर्थव्यवस्था सही दिशा में

भिन्न चुनौतियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था विकास की राह पर अग्रसर है. अपनी सालाना रिपोर्ट में इसे रेखांकित करते हुए एशियन डेवलपमेंट बैंक ने अनुमान लगाया है कि मौजूदा वित्त वर्ष में वृद्धि दर 7.3 फीसदी रहेगी. रुपये की कीमत में गिरावट, कच्चे तेल के दाम में उछाल और चालू खाते का बढ़ता घाटा जैसे […]

भिन्न चुनौतियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था विकास की राह पर अग्रसर है. अपनी सालाना रिपोर्ट में इसे रेखांकित करते हुए एशियन डेवलपमेंट बैंक ने अनुमान लगाया है कि मौजूदा वित्त वर्ष में वृद्धि दर 7.3 फीसदी रहेगी.

रुपये की कीमत में गिरावट, कच्चे तेल के दाम में उछाल और चालू खाते का बढ़ता घाटा जैसे कारक फिलहाल चिंता के बड़े कारण बने हुए हैं. यह स्थिति 2013 के मुश्किल दौर की तरह है, परंतु भारत की हालत अर्जेंटीना और तुर्की जैसी बेहाल अर्थव्यवस्थाओं से काफी बेहतर है.

जीएसटी तथा नोटबंदी से हुई दिक्कतों का असर भी बहुत कम हो गया है. साल 2014 और 2018 के बीच पूंजी दृढ़ीकरण के प्रयासों ने खतरे को बहुत कम कर दिया है और इस कारण वित्तीय घाटे में सुधार आया है. इन चार सालों में यह घाटा औसतन जीडीपी का 3.9 फीसदी रहा है, जबकि 2009 से 2013 की अवधि में यह आंकड़ा 5.5 फीसदी रहा था. चालू खाता घाटे को देखें, तो महंगे तेल के कारण ब्लूमबर्ग सर्वे के अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि पिछले साल के 1.9 फीसदी से बढ़कर यह इस वित्त वर्ष में 2.5 फीसदी हो सकता है, लेकिन 2013 के शुरू में यह घाटा 4.8 फीसदी हो गया था. एक अन्य बड़ी राहत मुद्रास्फीति के मोर्चे पर है.

साल 2009 से 2013 के बीच उपभोक्ता मुद्रास्फीति का औसत 10.1 फीसदी था, जबकि 2014-18 में यह 5.7 फीसदी रहा है. साल 2013 के संकट के बाद रिजर्व बैंक ने लगातार डॉलर खरीद की नीति अपनायी, जिससे इस साल अप्रैल में विदेशी मुद्रा भंडार 426 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंच गया था. हालांकि, तब से इसमें 26 अरब डॉलर की कमी आयी है, फिर भी केंद्रीय बैंक के पास अभी बहुत गुंजाइश बनी हुई है.

रिजर्व बैंक की विभिन्न दरों के निर्धारण की नीतियों ने भी बीते कुछ सालों से अर्थव्यवस्था को ठोस आधार देने में बड़ी भूमिका निभायी है. यह भी ध्यान रहे कि यदि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत सौ डॉलर प्रति बैरल के स्तर के पार जाती है, तो हमारे व्यापार घाटे को संभाल पाना आसान नहीं होगा. उस हालत में तेल के आयात में कटौती करने का विकल्प भी नहीं है, क्योंकि बढ़ती अर्थव्यवस्था की ऊर्जा जरूरतें भी बढ़ती जा रही हैं.

लोगों की जेब पर महंगे पेट्रोल-डीजल का बोझ घरेलू बाजार में मांग पर भी नकारात्मक असर डाल सकता है तथा मुद्रास्फीति बढ़ सकती है. तेल के दाम हों या डॉलर के मुकाबले रुपये का घटता मूल्य हो, इन मामलों में भारत सरकार और रिजर्व बैंक के पास हस्तक्षेप कर पाने के मौके भी नहीं हैं. अमेरिका-चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध तथा ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध भी हमारे लिए बहुत चिंताजनक हैं.

वैश्विक अर्थव्यवस्था इन दोनों मसलों से प्रभावित होगी और भारत भी इनसे अछूता नहीं रह सकता है. केंद्र सरकार, रिजर्व बैंक और उद्योग जगत को निर्यात बढ़ाने तथा विदेशी निवेशकों का भरोसा बनाये रखने के उपायों पर गंभीर पहलकदमी की जरूरत है, ताकि अर्थव्यवस्था के ठोस आधारों को अधिक मजबूती दी जा सके.

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