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इस राजनीति में गरीब की गंध कहां!

।। तरुण विजय।। (राज्यसभा सांसद, भाजपा) जिस देश में 70 प्रतिशत किसान हों, सड़क किनारे और फुटपाथ पर रहनेवाले मजदूर एवं वंचितों की संख्या लाखों में हो (2.72 प्रतिशत बेघर), बड़ी गोल पाइपों और रेल की पटरियों के किनारे पॉलिथीन के तंबू बना कर रहनेवाले लगातार बढ़ते ही जा रहे हों, जहां के गरीब, दलित […]

।। तरुण विजय।।

(राज्यसभा सांसद, भाजपा)

जिस देश में 70 प्रतिशत किसान हों, सड़क किनारे और फुटपाथ पर रहनेवाले मजदूर एवं वंचितों की संख्या लाखों में हो (2.72 प्रतिशत बेघर), बड़ी गोल पाइपों और रेल की पटरियों के किनारे पॉलिथीन के तंबू बना कर रहनेवाले लगातार बढ़ते ही जा रहे हों, जहां के गरीब, दलित परिवार की बच्चियां पेड़ों पर तड़पा-तड़पा कर मार दी जायें, तो भी देश की आत्मा झकझोरी ना जाये, उस देश की संसद में गरीब, किसान, मजदूर की बात करनेवाले कितने होंगे?

वास्तव में गरीबों की बात करना, इस विषय पर पांच सितारा होटलों में सेमिनार आयोजित करना, मलयेशिया, फीलीपींस से लेकर पेरिस और लंदन तक में गरीबी मिटाने, गरीबी के पैमाने तय करने, गरीबी जांचने आदि पर गंभीर चर्चाएं करना आदि अमीर नेताओं, संपादकों और अर्थशास्त्रियों का प्रिय विषय रहा है. इन सबके बीच गरीब वहीं के वहीं रह गये हैं, लेकिन अमीरों की अमीरी बढ़ती ही जा रही है.

दूसरी ओर, गोपीनाथ मुंडे पेड़ की छांव तले प्रारंभिक शिक्षा पानेवाले ऐसे नेता थे, जो साधारण गरीब-किसान-मजदूर की भी बात करते थे. वे बंजारा समुदाय से थे, लेकिन पिछड़ा वर्ग, जनजातीय समाज, अनुसूचित जातियों और किसानों में समान रूप से लोकप्रिय थे. उन्हें संसद में सौ से अधिक किसान प्रतिनिधिमंडलों को बुलाते, उनसे मिलते, उनको संसद भवन दिखाते हुए पाया गया है. लेकिन उतनी ही सहजता से वे जापान और चीन के प्रतिनिधिमंडलों से भी संसद के भाजपा कार्यालय में बात करते थे. जिस गोपीनाथ ने कभी पेड़ के नीचे शिक्षा पायी थी, वह भारत के केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री पद तक पहुंचे, तो इसके पीछे उनकी अपनी मेहनत का ही हाथ था.

महाराष्ट्र में जमीन से जुड़े, अपार जन-समर्थन के धनी, गरीब किसान, दलित, पिछड़ों की राष्ट्रीय फलक पर आवाज बने गोपीनाथ मुंडे का जीवन संघर्ष और साहस का मिश्रण रहा है. वे किसी से दबे नहीं, नुकसान सह कर भी समझौते न करने की जिद दिखायी. जो अच्छा लगा, ठीक जंचा, किया, चाहे उसके कारण कितने ही विवाद पैदा हुए. यह उनका व्यक्तित्व ही था कि राजनीति में ‘न्यायाधीश’ बन सजा और बख्शिशें देनेवालों की उन्होंने बित्ते भर परवाह नहीं की. उन्होंने बताया कि अगर जमीन पर कदम है, जनता में स्नेह और समर्थन है, अपनी ताकत पर अपना विस्तार है, तो भविष्य भी अपनी मुट्ठ में होकर ही रहेगा.

संसद में जाति, पंथ, भाषा पर बहस होती है, लेकिन गरीबी, अनुसूचित जनजातियों और वंचितों के ऊपर होनेवाले बेरहम अत्याचारों पर शायद ही कभी चर्चा तथा उसके उपरांत कोई कठोर कदम या विधेयक का विषय उठा हो. बदायूं की बेटियां दलित की थीं, हिंदुस्तान में उससे जन्मी वेदना और तड़पन की लहर कहां दिखी? कौन आया इंडिया गेट या रायसीना पहाड़ी पर या किसने जलाये शहर के चौराहे और प्रदर्शन स्थलों पर आंसुओं में डूबे श्रद्धांजलि के चिराग?

राजधानी दिल्ली हो या लखनऊ, शहर बदायूं हो या छपरा, दुख-दर्द-संवेदनाएं और श्रद्धांजलियां राजनीतिक हो गयी हैं. वोट बैंक, धन तथा राजनीतिक पद और ऐश्वर्य दुख-दर्द-संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का स्तर और पैमाना तय करता है. शहर भर की निहायत विनम्रता और कुशलता से सेवा करनेवाले किसी चर्मकार के दुख या उसकी मृत्यु पर कभी शहर में मातम पसरते देखा है? कोई धनवान होगा, जबर्दस्त ‘कांटेक्ट’ और जनसंपर्क में माहिर होगा, तो उसकी मृत्यु पर सारा शहर उमड़ेगा, बड़े-बड़े नेताओं के दुख में भीगे बयान आयेंगे, भले ही उस आदमी की सारी जिंदगी गलत काम करते हुए ही क्यों न बीती हो.

भारतीय मीडिया और राजनीति में चर्चा और खबर के केंद्र सिर्फ धनवान और तथाकथित सवर्ण है. जो निचली जाति के हैं और संघर्षशील गरीब समुदाय से हैं, उनके लिए न तो पेज वन है और न ही पेज थ्री. उनकी खबर सिर्फ तब बनती है, जब उन्हें मार कर पेड़ पर लटका दिया जाता है, या उनका नरसंहार होता है, या उन्हें किसी बड़े नेता की वर्षगांठ पर उपहार मिठाई वगैरह प्राप्त करते हुए दिखाने की जरूरत महसूस की जाती है. एक और वक्त आता है उनकी चर्चा का, जब कोई विदेशी अतिथि आये, तो उसे गांव और गरीब की झोपड़ी दिखाने तथा लंदन-पेरिस के अखबारों के लिए एक ऐसा फोटो ‘सेट’ करवाने की जरूरत हो, जिसमें राजकुमार-राजकुमारी गरीब के बच्चे को गोद में उठा कर चॉकलेट दे रहे हों.

कभी किसी अखबार में शहर के संघर्षशील गरीब किसान का इंटरव्यू छपते देखा है? वह किसान बेहद ईमानदारी से मेहनत करते हुए संतोष के साथ परिवार चलाता होगा, बेईमानी नहीं करता होगा, नेताओं की चापलूसी में नहीं जाता होगा, चुनाव के टिकट नहीं मांगता होगा, रिश्वत नहीं देता होगा, रासायनिक खाद भी इस्तेमाल नहीं करता होगा, लेकिन वह खबर के लायक अथवा संसद में चर्चा का विषय बनने का पात्र नहीं हो सकता. इसके लिए आपको थोड़ी कमाई बढ़ानी होगी, अपनी जाति और वर्ग का अहंकार तुलवाना होगा, वोट बैंक बन कर नेताओं और मीडिया को इस बात का एहसास कराना होगा कि उसको अपने साथ लिये बिना इनका गुजारा नहीं होगा, तब जाकर वह सुनी जाने योग्य आवाज बन सकता है.

सचिन तेंडुलकर को ‘भारत र-’ मिल गया, फिर भी उन्हें टेलीविजन पर विभिन्न वस्तुओं के विज्ञापन में चमकते-दमकते देख कर एक सवाल करने का मन होता है, कि भई जिंदगी में जो बाकी किसी को नहीं मिला, उससे कहीं ज्यादा आपको मिल गया है, अब और कितना कमाइयेगा? अब तो दोनों हाथ उलीचने का वक्त है. गांव-गरीब-किसान की बात अगर सचिन तेंडुलकर भी कभी-कभार कर दिया करें, कभी-कभार संसद में आकर कुछ बढ़िया बात और जमीनी हकीकत से जुड़े विषय पर कुछ अच्छी चीजें बोल दिया करें, तो देशवासियों को संतोष ही होगा. किसी अच्छी योजना का इसी बहाने श्रीगणोश हो सकता है, जिससे गरीब किसानों और पहाड़ पर बसे उपेक्षित भारतीयों का भला हो जाये.

लेकिन यह सब मन की संवेदना और हृदय की विनम्रता से जुड़ा विषय है. हमारे देश में आज भी बहुत अच्छी संख्या में लोग संवेदनशील मन से गरीब किसान-मजदूर के बीच काम करने में जुटे हैं. वे दिल्ली से बहुत दूर हैं, अजान तथा अनाम हैं, लेकिन राजधानी दिल्ली में गरीब की बात करनेवाले ढूंढ़ने पड़ते हैं. ऐसे में मुंडे जी जैसे किसी जमीन से जुड़े लोकप्रिय नेता का जाना और अखरता है.

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