बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि किसी समाज की प्रगति का पैमाना उस समाज में महिलाओं की हालत है. इस आधार पर देखें, तो भारत की छह दशकों से अधिक की लोकतांत्रिक यात्र निराशाजनक है.
स्त्रियों के विरुद्ध अपराधों की जघन्यता हर उस हद को लांघ चुकी है, जो भयावह दु:स्वप्नों और आशंकाओं के रूप में हमें भयभीत करते हैं. बदायूं के कटरा गांव में पेड़ से लटकी दो मासूमों की लाशें फिर वही सवाल पूछ रही हैं, जो लाखों गुड़ियों, निर्भयाओं और दामिनियों ने इस महान राष्ट्र के गांव, शहर, थाने, कचहरी और सरकार से बार-बार पूछा है- जिन रस्सियों को आम की डालियों पर हमारा झूला होना था, वे मौत का फंदा कैसे बना दी गयीं? दोषी सिर्फ वे नहीं हैं, जिन्होंने गरीब दलित परिवार में पैदा हुई इन मासूमों को हवस का शिकार बनाया.
अपराधी वह सरकार भी है, जिसका मुख्यमंत्री सत्ता के अहंकार में एक महिला पत्रकार के सवाल पर तंज करता है- ‘आप तो सुरक्षित हैं!’ अपराधी इस सरकार का वह सुप्रीमो भी है, जिसकी नजर में बलात्कार बस मामूली गलतियां भर हैं. दोषी सूबे की वह पुलिस भी है, जो मंत्री की गुम हुई भैंसों को खोजने में जमीन-आसमान एक कर देती है और जब भैंसें मिल जाती हैं तो उनका सबसे बड़ा अधिकारी ऐसे खुश होकर बयान देता है मानो सावित्री ने यमराज से सत्यवान की जिंदगी वापस ला दी हो. अपराधी राज्य की वह नेता भी हैं, जो अपने महिला और दलित होने की दुहाई देती रहती हैं और जिनकी नजर में यह राजनीतिक वापसी का अवसर है.
दोषी वे जांच एजेंसियां और अदालतें भी हैं, जिनकी फाइलों में रेप, अत्याचार और हिंसा की शिकार लाखों महिलाओं की सिसकियां दबी पड़ी हैं. वहां सुनवाइयों का सिलसिला तो है, पर फैसले की तारीख नहीं मिल रही. अपराधी वह समाज भी है जो बलात्कारियों व अत्याचारियों को पैदा करता है, पालता है. यही समाज गैरजिम्मेवार राजनेताओं और सरकारों को भी सिर-माथे पर बिठाता है और निकम्मे प्रशासन को बर्दाश्त करता है. इस देश में हर 22 मिनट में बलात्कार का एक मामला दर्ज होता है. दर्ज नहीं हो पाने वाले मामलों की संख्या भी कम नहीं है. कटरा का दर्द सिर्फ उसका नहीं है. यह देश के हर गांव-शहर का दर्द है और इसका इलाज सबको मिल कर ढूंढ़ना ही होगा.