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लुच्चे, लफंगे, धर्मगुरु

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार ‘लुच्चा’ बड़ा प्यारा शब्द है, हालांकि लुच्चे उतने प्यारे नहीं होते. उतने क्या, लुच्चे तो कितने भी प्यारे नहीं होते, भले ही कोई महिला किसी पुरुष को प्यार से ही कहे-चल हट, लुच्चा कहीं का! खुद लुच्चों ने ही ‘लुच्चे’ को प्यारा रहने नहीं दिया और उसमें बदमाश, लंपट, कमीना आदि […]

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

‘लुच्चा’ बड़ा प्यारा शब्द है, हालांकि लुच्चे उतने प्यारे नहीं होते. उतने क्या, लुच्चे तो कितने भी प्यारे नहीं होते, भले ही कोई महिला किसी पुरुष को प्यार से ही कहे-चल हट, लुच्चा कहीं का! खुद लुच्चों ने ही ‘लुच्चे’ को प्यारा रहने नहीं दिया और उसमें बदमाश, लंपट, कमीना आदि होने का भाव भर दिया. मूलत: ‘लुच्चा’ शब्द संस्कृत के ‘लुंचन’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ ‘नोचना’ होता है.

कुछ पंथों, धर्मों आदि में लोगों को योगी-यति आदि बनाने के लिए पहले उनके सिर के बाल मूंड़े ही नहीं जाते थे, बल्कि नोचे जाते थे. शायद इसके पीछे कबीर का वह ताना रहा हो, जिसमें उन्होंने कहा है कि मूंड मुंड़ाने से ही अगर हरि मिलते, तो हर कोई न मुंडा लेता, और कि भेड़ को ही देख लो, जो बार-बार मूंडे जाने के बावजूद बैकुंठ नहीं जा पाती!

अब इतने बड़े आदमी ने मूंड मुंड़ाने का निषेध कर दिया, वह भी भेड़ जैसे मासूम पशु का उदाहरण देकर, जो बस अपने से आगे वाली भेड़ के पीछे चलती जाती है. उनकी अंधानुकरण की इस प्रवृत्ति को पता नहीं क्यों, ‘भेड़िया-धसान’ का नाम दिया गया है, जबकि भेड़ियों का इस मामले से तो कोई ताल्लुक नहीं दिखता. शायद अच्छी-बुरी हर चीज का श्रेय छीन लेने की प्रवृत्ति के चलते किसी भेड़िये ने ही इसे यह नाम दिया हो.

बहरहाल, कबीरजी ठीक ही कह रहे होंगे, योगी-यति बनने के आकांक्षी लोगों के केश मूंड़ने के बजाय नोचने का निर्णय किया गया होगा.

बाल नुचवाते हुए अभ्यर्थी को बहुत कष्ट होता होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कष्ट होता, तो वह नुचवाता ही क्यों? सिर के सारे बाल वह नुचवा लेता है, इससे स्पष्ट है कि उसे कष्ट तो नहीं ही होता, उलटे मजा आता है. यह मजा महिलाओं द्वारा ब्यूटी-पार्लरों में अपनी वैक्सिंग करवाने जैसा हो सकता है! पर पुरुष होने के कारण पक्के तौर पर नहीं कह सकता.

‘लुच्चा’ शब्द पहले-पहल उन कमाल के लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ, जिन्होंने न केवल संसार छोड़कर संन्यास का पथ ग्रहण किया, बल्कि इसके लिए अपने सिर के बाल भी नुचवाये. लेकिन फिर इन्हीं योगी-यतियों ने लोगों के घरों से सामान चुराने, बच्चे उठाने, औरतें भगाने जैसे घोर सांसारिक काम किये, जिससे ‘लुच्चे’ जैसे पवित्र और आध्यात्मिक शब्द में लंपट-बदमाश का भाव जा समाया.

लुच्चे ने फिर लफंगे का साथ किया, जिसे पता नहीं क्यों और कहां के बाल नोचने के कारण लफंगा कहा गया. दोनों ‘दो जिस्म एक जां’ हो गये और लुच्चे-लफंगे के रूप में दोनों का फिर एक-साथ प्रयोग होने लगा.

‘धर्मगुरु’ शब्द का हश्र भी मुझे कुछ-कुछ ‘लुच्चे-लफंगे’ जैसा ही होता नजर आता है, जिसका कारण यह है कि कुछ धर्मगुरु खुद आला दर्जे के लुच्चे-लफंगे नजर आते हैं. पता नहीं, ‘धर्म’ में ही कोई ऐसी बात है या फिर ‘गुरु’ में, हालांकि असल में तो न धर्म में वह बात है और न गुरु में, फिर भी जिस धर्मगुरु को देखो, वही बलात्कारी निकल रहा है. अब तो समाज को ही नहीं, धर्म को भी धर्मगुरुओं से बचाने की जरूरत है.

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