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त्योहार में बाजार का मंसूबा

मिथिलेश राय युवा रचनाकार कुछ दिन पहले तो दस का ढाई किलो मिल रहा था और अब दस का किलो बता रहा है. जबकि अभी तो खीरे का सीजन उफान पर है. न कहीं बाढ़ आयी है, न ही अकाल. भारी बारिश के कारण सब्जियों की लताओं के सड़ जाने की भी कोई बात नहीं […]

मिथिलेश राय
युवा रचनाकार
कुछ दिन पहले तो दस का ढाई किलो मिल रहा था और अब दस का किलो बता रहा है. जबकि अभी तो खीरे का सीजन उफान पर है. न कहीं बाढ़ आयी है, न ही अकाल. भारी बारिश के कारण सब्जियों की लताओं के सड़ जाने की भी कोई बात नहीं हुई है. फिर क्या कारण हो सकता है कि एकाएक दाम में ढाई गुना वृद्धि हो गयी है? जबकि बाजार भी वही है, दुकानदार भी वही है. मेरी गुत्थी को दुकानदार ने ही सुलझाया. वह बोला कि रमजान में खाने-पीने की चीजें महंगी रहेंगी.
ओह! मुझे हठात ही कई सारी बातें याद आने लगीं. पहली बात रमजान के शुरू होने के तीन दिन पहले की है. मैं टेंपो पर बैठा कहीं जा रहा था. बीच की सीट पर बैठे लोग परवल के बारे में बातें कर रहे थे. एक व्यक्ति ने परवल का रेट पूछा, तो दूसरे व्यक्ति ने बीस रुपये किलो बताते हुए यह भी जोड़ दिया कि रमजान में परवल तीस-चालीस का किलो हो जायेगा!
कुछ दिन पहले मैं शहर से लौट रहा था. मुझे अंगूर लेना था. उस दिन डेढ़ सौ रुपये किलो बोल रहा था. पहले सौ, एक सौ बीस रुपये किलो दे देता था. मैंने कहा कि बड़े महंगे हो गये हैं, तो फल वाले ने कहा कि रमजान चल रहा है.
ताज्जुब है! फलवाला अगर यह कह देता कि अंगूर का सीजन खत्म हो रहा है, तो बात बुरी नहीं लगती. लेकिन उसने रोजे की बात कही थी. तो क्या बाजार त्योहारों के आने का बेसब्री से इंतजार करता है, ताकि वह चीजों को महंगे दाम पर बेच सके?
अभी परसों की बात है. इफ्तार का समय निबट चुका था. मैं एहसान के पास बैठा हुआ था. नेकी और ईमानदारी की बातें हो रही थीं. लेकिन पता नहीं बीच में बाजार कैसे घुस आया कि बात उसी की होने लगी और देर तक होती रही. एहसान के मुंह से एक वाक्य निकला था कि अभी बाजार बहुत गर्म है. चीजें इतनी महंगी मिल रही हैं कि गरीब आदमी अधमरा हुआ जा रहा है.
अभी हमारे रोजे के दिन चल रहे हैं, तो बाजार चांदी काटने में लग गया है. आपके दशहरे और दीवाली के दिन आयेंगे, तो वह फिर चांदी काटने बैठ जायेगा. बाजार को हमारे बारे में सब पता है. वह जैसे मौके की ताक में ही बैठा रहता है. उनका कहना था कि जरा बाजार की नीयत पर गौर कीजिए.
फल तो खैर बड़े लोगों के नसीब की चीज है. गरीब आदमी चिउड़ा, मुढ़ी, खीरा और चना से अपना रोजा खोलते हैं. एहसान ने एक बात और कही कि दिनभर के रोजे के बाद शाम को पानी पीने का खूब मन करता है. लोग पीते भी हैं.
पानी से ही पेटभर जाता है. ऐसे में रात के भोजन में कुछ स्वादिष्ट न हो तो ठीक से खाना नहीं खाया जायेगा. उन्होंने बताया कि जिन छोटी मछलियों की कीमत कुछ दिन पहले तक एक सौ बीस का किलो थी, वो अब एक सौ अस्सी का किलो मिल रही है.
मुझे लगा कि कक्का सही कहते हैं कि जब हम अपने त्योहार के दिनों में नेकी, ईमानदारी और लोक-कल्याण के बारे में सोच रहे होते हैं, तब बाजार हमें दुह रहा होता है!

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